मंच को नमन
शीर्षक : आत्मसम्मान
मानव ही मानव का बैरी
दुष्कर्म का पलड़ा भारी..
नास्तिकता भी चरम पर पहुंची
पाबंदियों की होती वाह वाही..
युवा पीढ़ी की सोच भी बदली
झूठी शान में जीवन है उलझी..
विकृतियों को देकर बढ़ावा
अधर्मियों ने उड़ाई आत्मसम्मान की खिल्ली..
हैं द्वेष - ईर्ष्या से पोषित मन भी
हैवानियत भी शिखर पर पहुंची..
ऐ मानव ! संस्कारों को इतना न गिराओ
कि स्वयं के आत्मसम्मान की उड़े धज्जी..
जब प्रकृति ने इस धरा पर
सभी जीवो में सद्भावना बसाई..
फिर मानव तुम क्यूँ बन दानव
मानवता की खिल्ली उड़ाई..
अब तो जागो विकृतियों से
भारतीय संस्कृति भी हैं अकुलाई..
आत्म सम्मान को ठेस पहुंचा कर
तनिक भी तुमको लाज ना आई..
बहुत हो चुका छल - कपट अब
प्रेम - पथिक के बनो पुजारी..
मिलेगी पर-सेवा में शांति
चित तेरा पावन होगा, होगी आत्मसम्मान में वृद्धि.. !!
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शालिनी कुमारी
शिक्षिका
मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार )
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