कवि अजीत कुमार जी द्वारा रचना “मजदूर”

मंच को नमन

कविता:- मजदूर
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हम मजदूर हैं साहब, हमें उजरत चाहिए।
दिन भर कुछ भी करवा लो-

हमही से चलती है बड़ी-बड़ी कम्पनियां,
हमही से बनती है बड़ी-बड़ी इमारतें।
हमही तो बाबू साहब के साफ करते हैं गंदगी,
हमही तो धोते हैं उनके बाहर की हर मैल।
फिर भी अपवित्र होती है उनकी हर चीज,
अपवित्र होती है हमसे धरती-
ये कैसी विडम्बना है?
जो भी हो-
हमें इससे क्या लेना?
हम मजदूर हैं साहब, हमें उजरत चाहिए।
दिन भर कुछ भी करवा लो।

हम हर काम में कुशल हैं,
हमारे लिए हर मौसम सुहाना है।
जेठ की चिलचिलाती धूप हो,
या पूस की कंपकपाती ठंड।
सावन की बरसात हो,
या बसंत की सौगात।
हमारा शरीर-
पत्थर दिल इंसानों के बीच रहकर,
पत्थर सा हो गया है।
हमारी सारी इच्छाएं मर चुकी हैं,
बस एक ही इच्छा शेष है-
प्रतिदिन काम मिल जाये,
साथ में उचित मजदूरी।
ताकि अपने परिवार का पेट भर सकूं।
दुनिया-दारी से हमें क्या लेना?
हम मजदूर हैं साहब, हमें उजरत चाहिए।
दिन भर कुछ भी करवा लो

अजीत कुमार
गुरारू, गया, बिहार

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