बदलाव मंच को नमन
दिनांक_ 19/10/20
दिन_ सोमवार
शीर्षक_ दिल की उलझन
दिल की उलझनो को सुलझाया बहुत है
इसकी कश्मकश ने सताया बहुत है ।
कुछ भूल जाना काश एक भूल जैसा होता
रह रह के मुझको कुछ याद आया बहुत है ।।
मैं ही शातिर
मैं ही कातिल ।
डूबते का तमाशा देखू
मैं वो साहिल ।
गजब का ये इल्ज़ाम मुझपे लगाया बहुत है
दिल की उलझनों को सुलझाया बहुत है ।।
अब कोई माने य ना माने ये उसकी सोच
मैंने सबको समझाया बहुत है ।
बढूंगी आगे सबसे बेपरवाह
अपने अंदर के इस यकीन को मैंने कमाया बहुत है ।
दिल की उलझनों को सुलझाया बहुत है ।।
पूजा परमार सिसोदिया
आगरा ( उत्तर प्रदेश )
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