कवयित्री डॉ. रेखा मंडलोई ' गंगा' जी द्वारा रचना “परवरिश"

आलेख
                   परवरिश
   बालक परिवार में परवरिश की बुनियाद पर ही श्रेष्ठता की राह पर बड़ सकता है। परवरिश में भाव हो समर्पण का, त्याग का और निश्छलता
 का। बालक के बाल मन में जैसे विचारों का बीजारोपण होता है, उसी के अनुरूप उसका व्यक्तित्व ढलता है।
   आज का समय बुनियादी बातों से परे एक रफ्तार भरी सवारी पर सवार होकर भागता जा रहा है। हर कोई पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाना चाहता है। अपने दोनों हाथों से धन बटोरने की तमन्ना व मुंह फाड़ती मंहगाई ने लोगों के जीवन जीने के नजरिए को बदल दिया है। आज व्यक्ति को सुबह से देर रात तक काम_काम और बस काम करने पर विवश होना पड़ता है, ताकि प्रतियोगिता भरी इस जिंदगी में व्यक्ति अपने आप को संतोषजनक  स्थिति तक पहुंचा सके। परन्तु संतोषजनक स्थिति का कोई स्थिर पैमाना मुझे आज तक समझ में नहीं आया। जिस व्यक्ति की कमाई सौ रुपए रोज होती है, वह दो सौ रुपए की दौड़ में तथा दो सौ रुपए वाला  चार सौ रूपए की दौड़ में अपने आप को झोंकता रहता है। इसी कारण व्यक्ति के अंदर और अधिक कमाने की लालसा बलवती होती जाती है और इसके चलते व्यक्ति अपने घर_ परिवार के साथ छोटी_छोटी खुशियां बटोरने के लिए अपने आप को आजाद नहीं कर पाता है, जिसका प्रभाव परिवार के बालकों पर निश्चित रूप से पड़ता है और वह अपने माता_पिता के प्यार से वंचित एकागी जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसे माहौल में बालकों में असुरक्षा, हताशा व निराशा के भाव बढ़ने लगते हैं। यह स्थिति एकल परिवार में आना स्वाभाविक है, विशेष रूप से तब जब माता_ पिता दोनों नौकरी करते हो । ऐसी स्थिति में यह प्रश्न आना स्वाभाविक है कि आखिर बालक की परवरिश की चिंता पर चिंतन कौन करेगा? बचपन को संपूर्णता के साथ विकसित करने के लिए आपको और हमको मिलकर चिंतन करना होगा, तभी भविष्य के भावी कर्णधारों को एक बेहतर परवरिश मिल पाएगी।
   डॉ. रेखा मंडलोई ' गंगा' - इंदौर

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