*शीर्षक- अंतर द्वन्द*
सिंदूरी आभा से लिपटी गोधूलि बेला में,
विश्वास का दीपक हाथ में लिए,
बिना नैन चुराए अपने कान्हा से,
एक टूक ताकती, अविचलित-सवाली सी मैं खड़ी हूं।
अंतर द्वन्द है ये हृदय की,
आस्था है अटूट कश्मो की,
अंतर भेद हैं खुद से खुद की,
संग्राम है ये मेरे जीवन की।
कुरूक्षेत्र बना हैं मन मेरा,
संस्कार और यथार्थ में है संघर्ष छिड़ा,
आत्मा की पुकार आज चित्कार में बदल गई है,
मस्तिष्क की उलझनें कशमकश में तब्दील हुई हैं।
अनवरत इस युद्ध में सपनों का वध होते मैंने देखा है,
ना जाने कितने ही भावनाओ का गला घोटा गया है,
आदर्शों ने वीर गति प्राप्ति से हैं इनकार किए-
इसीलिए तो आज इस अंतर भेद का हैं कारण बने।
मायूस मेरे मन को आज युद्ध विराम चाहिए,
चक्रव्यूह में फसी मेरी आत्मा को शांति चाहिए,
आज मेरे कान्हा से इसे जवाब चाहिए।
मृग मरीचिका की अब कोई जगह नहीं,
इसको तो बस सम्मान से अपना प्यार चाहिए।
स्मिता पाल (साईं स्मिता), झारखंड
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