कवयित्री नेहा जैन जी द्वारा रचना “क्यों दैहिक इस आकर्षण को प्रेम की संज्ञा तुम देते हो"

क्यों दैहिक इस आकर्षण को प्रेम की संज्ञा तुम देते हो  
मैं मन से चाहूं तुमको
पर क्या तुम मन को 
मेरे वाच पाते हो
सौंदर्य की उपमाओं से तुम मुझको
अलंकृत करते हो
पर क्या सच बोलो
सम्मान मेरा करते हो
मत सुनाओ राग झूठी प्रीत का
क्यो मुझे तुम छलते हो
मैं राधा सा निश्छल प्रेम करू तुमसे
पर तुम मेरे प्रेम का उपहास बनाते हो
मैं तुम्हे अंतस्तल में बैठाती हूँ पर क्या तुम देह से आगे जाते हो
सब समझू सब जानू मैं
पल पल पीड़ा पाती हूँ
अपनी प्रीत की भाषा क्यो
तुम्हे न समझा पाती हूँ
समझे न तुम घाव ह्रदय का
पल पल आघात देते हो
नज़रों में कुछ और तुम्हारी
मुझसे न छिपता है
जा रही हूँ छोड़कर तुमको
साथ अपना उचित नही
जब सीख लो प्रेम की परिभाषा तुम
तब वादे करना मुझसे आकर
झूठा दावा प्रेम का
किसी की हत्या करने जैसा है चलो फिर से ,हम अजनबी बन जाते हैं
 मौन में रहकर अब 
एक दूसरे को समझाते हैं


स्वरचित
नेहाजैन

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ