कवयित्री नेहा जैन जी द्वारा 'भाषा' विषय पर रचना

भाषा

होठों की  भाषा  तुम  समझे नहीं 
मेरे मौन को  क्या  तुम  समझोगे 
निकट रहकर भी तुम  सँग नहीं 
ह्रदय को  क्या मेरे  समझोगे 
क्यों मूक  मेरे हर प्रश्न  पर  हो 
मैं  विरह में अपने  स्वप्न नए संजोती हूँ 
लड़ती झगड़ती खुद  से  हूँ  
और  सवाल हल  करती हूँ 
अकेलेपन में तेरे  ख्यालों  की  सुधि पीकर मेरे पैर  बहकते है 
फूलों  का छूना भी  काँटों का स्पर्श लगता है 
न जाने क्यों तू मुझे पराया  होकर भी अपना  लगता है 
बोझल सी  इन आँखों में 
क्या अब भी कोई सपना पलता है 
सारंगी का हर तार टूटा लगता है 
मुझे श्वासों की गतिशीलता 
भी अब ठहरी  सी लगती है 
और हर विराम में तेरा आभास होता है 
रुक जाओ जरा चेतनाओं 
को होश में आने  दो 
अभी कहना कुछ शेष है 
मुझे दर्द के सागर में गोते खाने दो 
कैसा परिचय मेरा तुमसे पुराना है 
जो सूरज की किरणों का अँधियारा है
चाँद की ठंडक भी आँखों को  तपाती है 
पलकों की छाँव भी घनी धूपसी लगती है 
रुको अभी  जरा तुम मेरा श्रृंगार अधूरा है 
मैं भावों का  तन पर  दुशाला ओढ़ती हूँ 
और नयनो में काली बदरी का सुरमा लगाती हूँ 
जो  रुक सको तो रुको 
मैं, तूफान में कश्ती  चलाती हूँ 
भंबर  में मत उलझो  तुम 
साहिल तुम्हे बुलाता है 
मेरी  मंजिले और तुम्हारे रास्तों  का  मेल नहीं 
 चल सको तो चलो 
बहुत लम्बा है सफ़र 
थक  सको  तो चलो
स्वरचित 

नेहा जैन

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