फिर इस कविता लिखूं या ना लिखूं, यही सोचता हूं
लिखना चाहता था उस यथार्थ और उस जुल्म को
जो उस दलित पर जुल्म उस ठाकुर ने किया है
किस तरह उसे खुद को अपने ठाकुर होने का अहम है
किसलिए उसको ऊंची जाति में जन्म लेने का गुमान है।
क्या इसलिए ही
दलित को छोटा जाति कहकर दे धिक्करता है ?
कहीं छुआ ना जाए इसलिए उसे दूर करता है ?
शायद इसलिए ही उस दस गाली जमके दे देता है।
खुद को सबसे ज्यादा अक्लमंद और समझदार मानता है
अपने नजर में दलित को सबसे बड़ा मूर्ख समझता है!
इसे पढ़कर दस गाली मुझे भी देने का मन करेगा
और शायद ऐसे मानसिकता वाला दे भी देगा
इस कविता को झूठा कहकर जातिवाद से ग्रसित
और मुझे ही जातीयता का आकंठ बताएगा
ये सुनकर जातिवादी नक्सली साहित्य बताएगा
खुद जाति का चोला उतरेगा नहीं लेकिन मुझे ही
बुद्धि को ठीक करने को कहेगा।
यहां सिर्फ उस जुल्मी ठाकुर की बात कर रहा हूं
और सिर्फ उसकी सच्चाई को बता रहा हूं।
ऐसी मानसिकता वाले सभी ठाकुर को लगेगा
कि मैं उन सभी को कह रहा हूं।
उस ठाकुर क्यों नहीं कहूं
अगर वो खुद को ठाकुर कहकर किसी दलित पर
जुल्म करे और उसे गाली दे
उस ठाकुर को नहीं कहूं कि वो दरिंदा पापी हैवान है ।
खुद ही जातिवादी का नशा चढ़ा रखा है
और मुझे जातिवादी की संज्ञा देगा।
सिर्फ उस सच्चाई को लिखना चाहता हूं
इसलिए भी इस यथार्थ को नहीं लिखना चाहता हूं
मगर वो मेरे कवि होने पर वो लाख सवाल करेगा।
मैं किसी एक ठाकुर की सच्चाई को बता रहा हूं
मगर ठाकुर को लगता है पूरी ठाकुरों पर
अत्याचार कर दिया
अगर वो खुद को ठाकुर कहकर और समझकर
किसी दलित पे अत्याचार करे तो उसे ठाकुर
कह दिया तो क्या मै बहुत बड़ा जुल्म कर दिया ?
सिर्फ कहता है जातिवाद खत्म हो गया
दलितों पर जुल्म होना बंद हो गया है
सिर्फ बोली में खत्म हुआ है
मन में तो अभी भी जिंदा है
लेकिन सच्चाई तो यहां दिख रहा है
इसलिए लाख चाहकर भी नहीं लिखना चाहता हूं
फिर मेरा मन कहता है इस सच्चाई को लिखूं दूं
इसलिए मन की शांति के लिए लिखना चाहता हूं।
फिर सोचता हूं इसे लिखूं य ना लिखूं
बस यही सोचता हूं।
© रूपक
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