मंच को नमन
शीर्षक - हम और तुम
आओ नील गगन के नीचे
अभिसार करें हम और तुम।
सुधियों के आंगन में बैठे
प्यार करें हम और तुम ।।
नित्य प्रात तन को छूकर
चुपके हमें जगाता
फूलों की खुशबू से आ
पवन हमें महकाता
बैठ आम की डाल कोयल
प्रणय गीत सुनाए
सावन की फुहारों से
कोना कोना हर्षाता
कितने चित्र मन ने
उनकी प्रीत लिखें हम और तुम।
आओ नील गगन के नीचे
अभिसार करें हम और तुम।।
कोई बैर नहीं एक-दूजे संग
वृक्ष यहां झूमें
बच्चों के संग संग मस्ती में
यहां तितलियां घूमें
आ अधरों पर मुखर उठे हैं
अनब्याह छंद
निर्मल सरिता के तन को
धूप कुंवारी चूमें
कलियों ने ली अंगड़ाई
मिल मुस्कान भरें हम और तुम।
आओ नी गगन के नीचे
अभिसारे करें हम और तुम।।
नन्ही बूंद ले पुरवैया
मदिर मधुर रस घोले
संकेतों की सुन वाणी
प्रमुद मौन उठ बोले
अमावस में पगडंडी
कुमारी मांग सी चमके
प्रिय प्रेमपाश में बंधकर
मन मयूर सम डोले
रसखान कबीर तुलसी जैसे
भक्त बनें हम और तुम।
आओ नील गगन के नीचे
अभिसार करें हम और तुम
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मैं घोषणा करता हूंँ कि यह रचना मौलिक स्वरचित है।
भास्कर सिंह माणिक, कोंच
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