प्रित#सुधा सेन 'सरिता' द्वारा बेहतरीन रचना#

प्रीत 
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मैने तो प्रतिपल है कान्हा, अंतस से प्रीत निभाई ।
फिर बोलो यह एकाकी क्यों, मेरे हिस्से आई?

तुम बरसाना तज चले गए, मथुरा में धाम बनाने ।
मै बस इतना पूछूँ तुमसे, क्यों मुझमें प्रीत जगाई? 

सखियाँ निसदिन ताने देतीं, अँखियाँ रोती रहती हैं ।
उस पल को मैं याद करूँ जब, तुम संग नेह लगाई ।

अब तो यह चंदा ना भाये, है यमुना तट भी सूना ।
तुमने बंसी की हे कान्हा, कैसी धुन थी सुनाई?

सीधी- सादी थी मै कान्हा, सादगी में थी खुशहाल ।
प्रीत की रीत सिखाकर तुमने, कैसी ये अगन लगाई? 

फूलों के रंग रंग जाती, तितली के जैसे उड़ती ।
आ जीवन में छलिया तुमने, कैसी ये लहर उठाई? 

पूँछ रही यह 'सरिता 'तुमसे, है कैसी प्रीत की रीत ।
मै अपनी ही रही न जिसमें, खुद से ही हुई पराई ।

सुधा सेन 'सरिता 'रीवा मध्यप्रदेश

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