अरे कोई बता दो मुझे क्या हुआ है।
रुख चाहतों का किस ओर झुका है
प्यार का सागर क्यों कर रुका है।
धर्म और जात का आधार क्या है
आम इंसान का इसमें किरदार क्या है।
नफरतों का बीज उगाएगा नफरतें
पूरी होगी केवल सियासी हसरतें।
आदमी तो रोटी कपड़ा दाल में फंसा है
गला रेतने का रस्सा तो बहुत सस्ता है।
गरीब जनता को खाना कहां नसीब है
धोती सस्ती महंगें बहुत आलू प्याज़ हैं।
मध्यवर्गीय मेहनतकश बहुत है
अमीर और गरीब का उठाता बोझ है।
ऊपर हो या नीचे, दोनों से पहुंच उसकी दूर
अधर में लटका है सबसे ज्यादा मजबूर।
दम घुट रहा होश कहां ठिकाने में
कुछ बचा ही नहीं अब उम्मीदों के खजाने में।
सांसे हैं चल रही बची ना कोई आस
कुदरत के स्त्रोत बिक रहे बुझेगी कैसे प्रयास।
खून के आंसू रोज रोती है धरती मां
उसकी बेटियों की सुनाएं किसे दास्तां।
झूठ और फरेब का आया कैसा दौर
झूठे वादे झूठे इरादों से मचा रहता है शोर।
आंखों से मोती नहीं अग्न की होती बरसात
डर लगता है आह किसी की ना कर दे पूरा हिसाब।
कल्पना गुप्ता/ रत्ना
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