कुमारी आरती सुधाकर सिरसाट जी द्वारा विषय 'एक किताब बचपन की' पर विशेष रचना#

"एक किताब बचपन की"
एक किताब बचपन की....
आओं फिर से खोलते है....
तोड़कर उन मिट्टी के....
खिलौनों को फिर से जोड़ते है....

बचपन की किताब का वो पहला पन्ना....!
माँ की गोद और पिता की सोच....
माँ के आँचल को फिर से आसमां बनातें है....
पिता की सोच को फिर से ओढ़ते है...

बचपन की किताब का वो दूसरा पन्ना....!!
दादी की वो लम्बी- लम्बी कहानियां....
दादाजी की वो जीवन जीने की राह....
दादी की उन कहानियों को पढ़- पढ कर....
आज हम कहानियां लिखतें है....
दादाजी की राह पर हम आज भी चलतें है....

बचपन की किताब का वो तीसरा पन्ना....!!!
जब पहली बार पाठशाला में पहला कदम पड़ा था....
नये दोस्त, नयी दुनियादारी, नयी सोच से दामन भरा था....
वो....गुरूजी की दाट में भी प्रेम की भावना झलकती थी....
एक नयी ख्वाहिशों की, बचपन की दुनिया थी....
बस यहां तक ही तो दुनिया सारी खूबसूरत लगती थी....

फिर....बसंत पर बसंत बीतते रहें....
किताब के पन्ने खुद ब खुद पलटते रहें....
ओर....हम खुद को खुद में समेटते रहें....
कभी बनतें रहें, कभी मिटते रहें....

हालातों ने परीक्षा लेना शुरू कर दी....
बंधनों ने भी पैरों में बेडियां बांध दी....
जिम्मेदारियों की भी उम्मीदें जगीं....
अनुभवों की जीवन में औढ लगीं....

जब हार कर बैठी जिन्दगी से....
तब अंदर से एक आवाज आई....
इतनी खुबसूरत जिन्दगी की तुमनें
क्या हालत है बनाईं....
!
!
चलों....दिल से एक अरदास करते है....!
आज....फिर से उस दौर में चलते है....!!
!
एक किताब बचपन की....
आओं फिर से खोलते है....
तोड़कर उन मिट्टी के....
खिलौनों को फिर से जोड़ते है....

        कुमारी आरती सुधाकर सिरसाट
         बुरहानपुर मध्यप्रदेश

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ