"स्व"


"स्व"
गहन चिंतन और स्व-विमर्श
लाया हैं, उस किनारे पर।
क्या अभी नही जो सुख मिला,
कभी मिलेगा उस जीवन के किनारे पर,
जो पा न सकी बाबुल के मुँडेर पर,
तनुजा ही पाऊँगी खुद से,
यह भी संदेह हैं परिस्थितियों पर।
क्या कर्तव्य नही तुम्हारा बनता?
मिले सुख मेरे कर्म और धैर्य पर?
क्या आत्मजा की इक्षापूर्ति
माता-पिता का धर्म हैं?
क्या आहे भरना,
हर अबला का कर्म हैं?
मैं कर्तव्यनिष्ठ,कर्तव्यपरायण
फिर प्रश्नचिन्ह का घेरा क्यों?
तुम संबल मैं आज भी दुर्बल,
यह तकदीर का खेला क्यों?
निःसंकोच, निःस्वार्थ बनों
यह सोच नही बदला अबतक।
क्या शताब्दी बदलेगी,क्या जुलुस, क्या रेलम-रेल?
'फेमेनिज़्म'नही पसंद मुझे ,
अब स्वाभिमान का केवल दम्भ।
-सोनम कुमारी (झारखंड)



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ