प्रेम एक मिसाल,अंशु प्रिया अग्रवाल

बदलाव मंच सप्ताहिक प्रतियोगिता
विषय- कोई भी काव्य कथा
विधा -काव्य कथा
दिनांक-23/06/20
दिन -मंगलवार



शीर्षक- प्रेम एक मिसाल

दो अजनबी मिलते रहे दोस्ती हुई ,
दूरियाँ नज़दीकियों में बदलने लगी।

दो अलग विचारधाराएँ, 
दो शरीर की एक हुई आत्माएँ।।

प्यार के तारों से वीणा बजी ।
सुमधुर ध्वनि जीवन में सजी ।।

एक चुटकी सिंदूर की कमी थी ,
रूह  एक-दूसरे में बसी थी।।

जानते ना थे कब से हम राही हैं।
ऐसा लगता कई जन्मों के साथी हैं।।

एक प्यार था एक धड़कन बनी थी ।
एक दिल था एक सरगम बजी थी ।।

साथ उनका जैसे होता स्तुति वंदन ।
मेघ बरसें प्रेमी का करें अभिनंदन।।

कभी बारिश में मीठी बौछार के साथ ।
चलते थाम एक दूसरे का हाथ ।।

हमेशा साथ रहने ,साथ देने का वचन देते रहे ।
एक कहता बाती ,तो एक दिया बन जलते रहे ।।

एक कहता मेरा क्या है, सब तो तेरा है।
बिन तेरे मेरे जीवन में सघन अँधेरा है ।।

आँखें मेरी है पर बसेरा तेरा है ,
पलके मेरी पर ख्वाब पर डेरा तेरा है ।।

प्रीत की रस्में निभाते रहे।
दूरियाँ पल-पल मिटाते रहे।।

होली की छुट्टियों में काव्या ,
उत्साहित घर अपने आई थी ।

चाँद सी सुंदर दिखती हो काव्या,
दोस्तों से खूब तारीफ पाई थी ।।

लेकिन फिर एक दर्पण टूटा।
स्वप्न सलोना ख्वाब रूठा ।।

मानवता फिर से हुई शर्मसार
दरिंदगी करती रही कठोर प्रहार।।

रोती काव्या ,था उसे सौरभ का इंतजार।
आँखों में आँसू , वहशियों की हुई शिकार।।

खूँखार नजरे खंगालती उसका कोमल नग्न शरीर।
बुदबुदाती रही वह, वे दागते जख्म ,देते दर्द- पीर।

नरपिशाचों के आगे गिड़गिड़ाती माँगती रही पनाह।
बिलखती रही वो  द्रौपदी ,कहीं मिली ना छाँह।।

बर्बरता भी अचंभित थी, उसका दर्द देखकर।
बीच सड़क पड़ी वो अपनी आबरू लुटाकर।।

जीने की चाहत ना शेष थी ,
तूफान  बन द्वार पर मुश्किलें खड़ी थी ।।

रुकती नहीं थी आँधी ,वो चीत्कार, वो आहें।
मरहम क्या कोई लगाए ,उपहास देते गए छाले।।

जितनी बार खड़ी होती, खुद को समझाया था। नासूर बन , उभरता अतीत , उड़ने ना देता था ।।

उपहासों की आरी ,कटाक्ष की कुल्हाड़ी ।
कैसे चले वो अपंग बनी जीवन गाड़ी।।

निगाहें प्रश्न करती थी, जग ने आत्मसम्मान छीना।
ओले तेज बरसते थे, जो ना देते उसे संभलना।।

तुलसी थी आँगन की , कैक्टस बन कर बैठी है। 
पूनम की चाँदनी थी, अमावस्या बन उतरी है।।

उधड़े चिथड़े मेरी बेटी की, विदाई कैसे होगी ?
कौन थामेगा  हाथ उसका? कैसे सगाई अब होगी?

काव्या भी पश्चाताप की ,शोलों में जलती थी।
गलती नहीं थी, लेकिन अपराधी बनकर जीती थी।।

सौरभ के लिए नहीं रही मैं, यही सोचा करती थी।
बस यही सोच- सोच कर, आँसू बहाया करती थी।।

कितनी बार कोशिश की थी सौरभ ने बतियाने की। हर बार फोन काटा,हिम्मत ना था, कुछ बताने की।।

फिर एक दिन ऐसा आया !
विश्वास ने साहस बँधाया ।।

गम का बोझिल मन ले मुश्किल से  फोन किया। सीने पर पत्थर रखकर जज्बातों को बयां किया।।

चुपचाप सौरभ ने फोन वहीं पर काटा था ।
अश्कों के मोती बहे, ज्वार हृदय में आया था ।।

मुंबई से वह दिल्ली पहुँचा,अपनी काव्या से मिलने। काँटों भरे जंगल में, फिर से सुंदर सुमन बनने ।।

शीतल हवा का झोंका वो सुरभि भर कर लाया था। मुरझाई लता को देख पल-पल वह मुरझाया था।।

काव्या मेरी ,मैं तुम ,देखो अलग -अलग कहाँ है।
रूह एक है, मन एक, बस शरीर जुदा-जुदा है ।।

तुम अभी मेरी चाहत हो ,बसंत हो, बहार हो।
मेरे जीवन की फुलवारी, धानी चुनर , उपहार हो ।।

मेरे जीवन की पतवार मेरे पूनम की उजास हो।
मेरे दिल को सहलाए ,वो सुनहरे एहसास हो।।

खूबसूरत कल्पनाएँ मूर्त रूप लेकर सँवरने लगी।
जीवन फिर से रँगरेज बनी सपने सजाने लगी।।

झड़ गई सब उदासी ,खुशियों ने आलिंगन किया। अलौकिक प्यारे बँधन को,पूरे सृष्टि ने नमन किया।।

बँजर जीवन में ,अँकुर आशाओं के प्रसून खिले। 
पवित्र है काव्या आत्मा से, हृदय से हृदय मिले ।।

प्रेम की ऐसी पवित्रता को मेघ करें आचमन।
घुमड़ -घुमड़ बादल बरसे  काव्या बनी सुहागन।।

अंशु प्रिया अग्रवाल 
मस्कट ओमान
स्वरचित
सर्व मौलिक अधिकार सुरक्षित

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