वीर वधु के यक्ष-प्रश्न ✍एकता कुमारी

"वीर वधु के यक्ष-प्रश्न"
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आज सुनाती हूँ ऐसा किस्सा, इक दूजा सिया राम की,
मैं ये बताने आयी हूँ उनके मौजूदगी के प्रमाण की।
रामायण- सा कर्म पथ है, 
महाभारत - सा धर्म पथ है।
आज भी सीता, राधा जैसी, नारी त्याग - प्रेम की मूर्ति है,
विश्व भारती भारत की जहां में, आज भी बिखरी कीर्ति है।
आज ऐसी ही एक किस्सा, मैं सबको बताने आयी हूँ।

प्रणय सूत्र में बंधने से अभी बीते ही थे कुछ वर्ष,
अभी समझ भी पाए ना थे इस पावन रिश्ते का अर्थ।
प्रेम की भी बातें अभी तक थी अधूरी ,
कोई ऐसी बात नहीं जो हो गई हो पूरी। 
गोद में था एक नन्हा - सा बालक, 
वही कल का ख्वाब था। 
उसके लिए जो छ्प गई हो, ऐसा ना कोई अभी किताब था। 
तभी अचानक खबर ये आयी, 
माँ के दामन पर कोई दाग लगाने आया है, 
 अपने वतन के मान के खातिर मैंने अपने सुहाग को भेज दिया। गर्व से सर ऊपर उठ गया था मेरा , लेकिन आँखे भर आयी थी। 
अपने गले से लगा कर उन्होंने यह विश्वास दिलाया, 
हाथों से हाथों को थामकर अटूट प्रेम का आभास कराया। 
रो मत पगली जल्द वापस आऊंगा, 
तेरे लिए बिंदिया, चूडी और पायल भी लाऊंगा। 
मैं पलकें बिछाए बैठी थी तभी फोन भी बज उठी, 
फोन सुनते ही मैं सन्न सी रह गई। 
मेरी तो दुनियाँ ही लूट गई, 
सारी खुशियां भी अब रूठ गई। 
आँख, कान और अधर भी मानो मेरे सील गए थे, 
सूरज के उजाले को भी अब अमावस निगल गए थे।
 लिपट कर मुझसे नन्हा बालक कर रहा था सवाल, 
माँ! तुम्हारी क्यों हो गई है ऐसी हाल? 
माँ! आज तुमने क्यों नहीं की है? 
बार बार वो पूछ रहा था माँ क्यों है तेरा ये हाल? 
ख़ामोश निगाहें सिर्फ उसे देख ही पाती, 
उससे कुछ भी कहने की मेरी हिम्मत नहीं होती। 
कुछ वक़्त के बाद ही उसके खत्म हो गए थे सारे सवाल, 
तिरंगे में लिपटी हुई आँगन में आ गई थी उनकी लाश। 
पिता से लिपट कर वो जय हिंद जय हिंद बोल रहा था, 
अपने पिता के माथे पर वो आखिरी अपनी मासूम चुंबन दे रहा था। 
अपने नन्हें से बाहों में मुझे भिंचकर बोल रहा, 
माँ! मुझको है कसम ये तुम्हारी ।
माँ! मैं तेरे सुहाग का मान बढाऊंगा, 
मातृभूमि के चरणों में दुश्मन का भाल चढाऊंगा। 
अब आँगन भी हो गई थी सुनी, 
दिवारें भी रो रही थी, 
सिसक रही थी संग मेरे देहरी भी। 
मैं बन गई थी अब जीती - जागती जिंदा लाश, 
रंग - बिरंगे वस्त्र भी रूठ कर, 
अब आ गए थे पास में मेरे सिर्फ श्वेत लिबास। 
दुनियाँ वाले उनको अमर शहीद बोल रहे, 
और मैं वहीं विधवा होने का ताने सुन रही।

उनकी शहादत पर भी आज कोई सियासत कर रहा है, 
उनके कर्म पर भी कोई प्रश्न खड़ा कर धूमिल रियासत कर रहा है। 
ओ! सत्ता के सौदागर। 
थोड़ी भी तो शर्म करो, 
ये ग़र मेरी माँ है तो तेरी भी यही है माँ। 
क्या किसी के जान की कीमत तेरा निजी स्वार्थ है? 
क्या किसी के ममता की कीमत ये शूल सा चुभता सवाल है? 
किसी बहन के अभिमान की कीमत तेरा ये सवाल है? 
किसी पत्नी के सम्मान की कीमत क्या तेरा सवाल है? 
क्या अपनी मातृभूमि के मान-सम्मान की कीमत तेरा ये बेबाक सवाल है? 
क्या बेबाक सवाल है? 
क्या तेरा ये सवाल है - 2
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          ** एकता कुमारी, बिहार* *

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1 टिप्पणियाँ

  1. आज मैं नहीं जितनी भी रचनाएं पढ़ी उनमें सबसे सर्वश्रेष्ठ आपकी रचना बहुत-बहुत बधाई बहुत-बहुत शुभकामनाएं आपकी कलम को नमन

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