पिता का प्रेम
परोक्षतः पल-पल पालनेवाला पालक है पिता,
सचर-अचर की सृष्टि का संचालक है पिता !
है माँ अगर माहेश्वरी की मूरत तो,
परमपिता परमेश्वर का प्रतिरूपक है पिता !
माँ मंदिर-पूजा है तो पिता पुजारी-कर्त्ता-धर्ता है,
सुमंगलकर्ता,उमंगदाता उद्धारक है पिता !
जो उंगली पकड़ चलाये, जीना सिखाये,
बच्चे की हर परेशानी का संहारक है पिता !
'क्रिया' स्वमेव नहीं,बिन 'क्रिया' कर्म है अस्तित्वहीन,
परिवार के हर वाक्य का कर्त्ता-कारक है पिता!
किस मंज़िल को जाएगी संतान की गाड़ी, उसे है मालूम,
बच्चों की बिगड़ी चाल बूझनेवाला चालाक चालक है पिता !
माँ अगर है कलम अनजान-गुमराह रचनाओं की,
बनाकर पुस्तक प्रकाशित करनेवाला प्रकाशक है पिता !
बेटा उड़ रहा गर पिता के पैसे या 'पॉवर' से,
पुत्र प्रशंसाविहीन है क्योंकि उसका 'लक' है पिता !
पिता के होने न होने का अंतर 'दीपक' ही जाने,
जिसने जीवन में जलाई है पिता की चिता !
-दीपक क्रांति
पिता और न्यूटन का नियम
पिताजी ! पता है न आपको
कि प्यार नहीं दिया कभी मुझको
सहारा भी नहीं दिया कभी
रोटी नहीं दी आपने
कपड़ा भी नहीं दिया कभी
माँ को अघोषित रूप से छोड़ दिया
उनके माँ-बाप के सहारे,
पर आपको तो अब पता होगा
कि हमसबने कैसे दिन गुजारे !
स्वर्ग में बैठे हो आप
पर आपका हर अभिशाप
मुझे वरदान-सा लगा आज
मेरा नस-नस करता है आप पे नाज़ !
कि आपका प्यार नहीं पाने पर ही
समझ पाया प्यार की कीमत
आपका सहारा न पाने से ही
आज हूँ कई बेसहारों का सहारा
आपके रोटी न देने से ही
खुद रोटी कमाकर हूँ आत्मनिर्भर,
कपड़ा नहीं देने देने की वजह से
कई-नंगे तनों को वस्त्र दे पाया
भले ही आप-सा न बनना चाहूँ
पर हैं आप सदा
न्यूटन के तीसरे नियम-सा
मुझे ज्ञान देते हुए
मेरे भीतर
आपसे हूबहू
मिलती मेरी शक्ल के कोने-कोने में
सच्चाई के लिये मेरे हर 'विद्रोह' में
आपसे सीखी हुई आत्मनिर्भरता में,
जागे हुए ज़मीर में,मेरी रूह में !
-दीपक क्रांति
हाय !यह कैसी विदाई
शीर्षक -हाय !यह कैसी विदाई !
ज़िन्दगी को जर्जर करती ये जुदाई
हाय !यह कैसी विदाई !
जिनकी साँसों से जुड़ी थी जीवन की तरुणाई,
रुकी साँसें, आंखें बरसने को आई
आह !यह कैसी विदाई !
नहीं रुक रही रुलाई
जीवन की नश्वरता
क्यों जीवन भर स्वीकार न हो पाई !
हाय !यह कैसी विदाई !!
'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः '
वेदना की चौखट पर ज्ञान अश्रुओं में बहता जाये,
'राम नाम सत्य 'का नारा
कोई कंधे पे अर्थी लेकर कहता जाये,
मन-पटल पर चहुँओर अँधियारा छाये,
कोई चला गया, मन मान न पाये,
कोई बात अब मन को न भाये,
शाश्वतता-नश्वरता से परे एकाकीपन डगमगाये,
हाय !यह कैसी विदाई !
आह !यह कैसी विदाई !!
वाह रे खुदा, वाह तेरी खुदाई !
हाथ पकड़ चलानेवाले को
मेरे हाथों ही मुखाग्नि दिलवाई !
-दीपक क्रांति
एक बाप का जाना
सारे सवाल मुझे देकर जवाब लेकर चला गया वो,
ज़िन्दगी का हरेक ज़िंदा ख़्वाब लेकर चला गया वो !
भाग्य भागता रहा गुणा-भाग के पीछे,
मेरी खुशियों का सारा हिसाब लेकर चला गया वो !
हम चिरागों से ही चीरते रह गये तीरगी,
मेरा आफताब मेरा महताब लेकर चला गया वो !
मैं करता रहा इंतज़ार अगले जनम का,
मेरे हर जनम का सवाब लेकर चला गया वो !
उसने ही लिखी थी मेरी ज़िन्दगी की किताब
मेरी ज़िन्दगी की बंदगी की बंद किताब लेकर चला गया वो !
इंतज़ार है जन्नत में उससे जाकर मिलने का,
ज़िन्दगी में मिला हर ख़िताब लेकर चला गया वो !!
-दीपक क्रांति झारखण्ड
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