फेसबुक की आग

बदलाव मंच साप्ताहिक प्रतियोगिता 
विषय -सावन में लगी आग

 विधा -व्यंग कविता 
दिनांक 16/06/ 20 
दिन मंगलवार

विधा -हास्य कविता 
शीर्षक - फेसबुक की आग

( यह कविता किसी के दिल को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं लिखी है बस एक व्यंग मात्र है। सभी पढ़े और आनंद ले)


कवि मन में भावनाएँ ,
सावन बन बरसती है। 
कल्पनाओं की दामिनी से,
लेखनी चमकती है।।

सोशल मीडिया में मैंने देखा ,
फेसबुक का प्रादुर्भाव। 
होगा ज्ञान का फ्री रिचार्ज,
 ना रहेगा कोई अभाव।।

दोस्तों ने कहा साहित्य की,
दुनिया में उभरना है ।
तो फेसबुक मीडिया पर,
 जरूर ही लिखना है ।।

नही लिखा तो कोई,
पहचान ना रहेगी ।
कलम की दुनिया में ,
नाम रोशन ही ना होगी ।।

आज तो फेसबुक ,
नहीं चलाया।
तो जैसे अपना,
जीवन व्यर्थ गँवाया ।।

फेसबुक प्रशंसा पाने,
का बहुमूल्य पिटारा है।
आज यही चमकता सूरज,
यही उभरता सितारा है।।

यही सावन का बादल ,
बनकर झमझम बरसता है ।
रूष्ट हो जाए सोशली तो,
आग सर्वत्र लगता है।।

शब्दों में वजन
मैं ढूँढने लगी ।
जज्बात कैसे समेटूँ 
रोज सोचने लगी ।।

किसी शुभचिंतक मित्र ने 
सलाह दिया था पैना।
मार्गदर्शन ,आशीर्वाद ,
वरिष्ठ लेखकों से लेना।।

उनसे जुड़ना पहले ,
लेखन के गुर सीखना ।
सबका आभार मानना,
सब को नमन करना ।।

कोई कुछ सलाह देता,
कोई कुछ विचार रखता। 
खिचड़ी पकती रही,
विचारों का मंथन होता गया।।

गुण नहीं देखा ना सीखा,
शायद मुझ में ही कमी थी।
भर -भर गुरूर जरूर देखा 
काले बादल बन छाई हुई थी ।।

इनबॉक्स में मन्नतों,
की पूरी शर्तें मान ।
आजीवन लाइक कमेंट,
 का करूँगी मैं दान ।।

महीने लगाए , दोस्त ना बनाया,
कुछ ने साल इंतजार कराया। 
कुछ सजदा कराते रहे ,
पाषाण दिल ना पिघलाया।।

रोज सवेरे कठोर तपस्या,
साधना होता।
कितना भी बेस्वाद ,
भोजन परोसा जाता।।

बड़े कमेंट और लाइक 
का मैं लड्डू चढ़ाती।
बेस्वाद , बिना रस  के ,
भोजन को सुस्वादु कहती।।

मेरा ही ज़मीर ,
मुझे गाली देता।
अपना ही स्वाद ,
मुझे चिढ़ाता।।

मैंने तारों जैसे झिलमिल
लाइक की लड़ियाँ लगा दी।
वे ईद का चाँद बने रहे,
कभी बधाई तक ना दी ।।

अखबार में मेरे लेख ,
सावन- भादो जैसे बरसते रहे।
प्रतियोगिता में मेरी जीत से,
दिलों में आग लगने लगे ।।

मेरे किसी लेख पर दिग्गजों का
एक कमेंट भी ना मिला ।
ना किसी कविता पर,
उनकी तालियाँ वाहवाही मिली।।

उनके लेखन की ,
फुहार नहीं पड़ी।
नसीहतें ,बलाएँ, 
असंख्य ओले झड़ी।।

मैं कहती आशीर्वाद 
की बौछार बनी रहे।
वे बिजलियाँ कुंठा में ,
ग्रस्त गिराते रहे ।।

कुछ दोस्तों ने कहा,
नाराज क्यों होते हो?
नए लेखकों को अभिमान ,
दर्प का रोग ना हो।

 यह भी सीखाने का,
 उनका एक तरीका है।
 तुझे घमंड ना हो ,
उनकी विनम्रता है ।।

जीवन के मधुबन में ,
फेसबुक काँटो भरा बबूल है ।
रिश्ते जड़ों से काटते जाते,
बोते नए-नए फूल है ।।

चाहत,होड़ की चाह ने,
सबको बना दिया दलाल।
झूठी शान शौक अदब लें ,
ओढ़े बैठे नैतिकता खाल ।।

कविता और सावन बनकर 
झमझम बरसती नहीं।
गृहस्थी में लग जाए ना आग ,
कवि मैं अब बनती नहीं ।।


अंशु प्रिया अग्रवाल 
मस्कट ओमान 
स्वरचित 
सर्व मौलिक अधिकार सुरक्षित

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