आदिवासी नारी हूँ

अत्याचारों से हारी हूँ
मैं आदिवासी नारी हूँ
अधिकारों से वंचित कर्तव्यों से संचित
पर्वत से घाट तक
खेत से हाट तक मेरे ही निशान हैं
मन की दीवारें सूखी मेरी
आंगन को सजाती हूं
दोना पत्तल खूब बनाती

चटाई भी बुन लेती हूँ
अक्षर मैं बांच न पाऊ
चहेरे खूब पढ़ लेती हूँ
गहरे राज जंगल के दफन है मेरे सीने में
सच अगर कह दू तो डायन करार दी जाती हूं
एक मुर्गा और दारु में मैं बेची जाती हूं
मैं आदिवासी नारी हूं
पंखे बनाकर बेचती
जड़ीबूटी चुनती हूँ
न कोई हिस्सा न कोई किस्सा मैं गुमनाम मर जाती हूं
पशुओं से प्रेम है मुझको इन्हें गले लगाती हूं
औऱ थके इस तन पर लाते घूसे भी खाती हूं
मैं आदिवासी नारी हूं
अवनि अम्बर साक्षी है
मैंने सतीत्व निभाया है
चूल्हा फूंका मजदूरी की तन को नही बेचा है
रक्षक जब भक्षक बन बैठा तब मैंने आवाज़ उठाई है फिर निर्वस्त्र घुमाई गई लोगो ने मुँह पर कालिख़ लगाई हैं
चली हूं आज दुर्गा बनके
दोहरानी महिषासुर की कहानी हैं
अपनी लड़ाई आप लड़ूंगी
मैंने मन मे ठानी हैं
टूट चुकी हूं तन से मन से न मैं हारी हूं
मैं आदिवासी नारी हू आदिवासी नारी हूँ

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