मोहल्ले वाले चिढ़ाते, दुत्कारते बाँझ- बाँझ ।परिवार की सुबह नहीं ,वो थी केवल साँझ।।

मोहल्ले वाले चिढ़ाते, 
दुत्कारते बाँझ- बाँझ ।
परिवार की सुबह नहीं ,
वो थी केवल साँझ।।

तरसती थी , बिलखती थी ,
किलकारियों के लिए ।
दर्द चुभता था ,तड़पती थी , 
मातृत्व ,वात्सल्य के लिए ।।

अस्तित्व तार-तार रोज होता,
जिंदगी एक अनसुलझा सवाल बनता।
बच्चों को लोग उसकी नजर से बचाते,
कोई काला टीका कोई काजल लगाते ।।

कोई सरसों, मिर्ची ,नमक से नजर उतारते,
बाँझिन की परछाई पड़ी है, हाय मेरा लाल !
कहते कह कर पुचकारते, दुलराते ,
अभागी  को कलंकनी कह कह कर गरियाते।।

कोई चुड़ैल, कोई अपशकुनी,
कोई ग्रहण समझता, 
खुशियाँ छीनने वाली, 
लुटेरन कोई कहता ।

आज उसके जीवन में,
घना अमावस्या छाया।
पति ने तलाक दे दिया ,
घर बार सब छिन गया ।।

वीरानगी ,सन्नाटा ,
आहें व सदमा ।
जिंदगी ने ली करवट,
कोई रहा ना अपना ।।

पगली थी वो , बाँझिन थी वो,
कचरे के ढेर से जीवन चलाती थी वो।
सुध -बुध सब बिसराई ,
किलकारी ढूँढती सुनी अंगनाई ।।

वो रात गजब की ,
चीखें सुनाई दे रही थी ।
हाड़ कंपाती सर्दी वो ,
मार्मिक आवाज सोने ना देती थी।।

कहीं एक नवजात की क्रंदन सुनाई देती है ,
अन्य प्राणी की कोई सुगबुगाहट ना होती है 
धड़कनें तेज हुई, राख की ढ़ेरी में ज्वाला धधकी, बेतहाशा भागी वह ,करुण क्रंदन हृदय चीर रही।।

देखा एक नवजात बच्ची ,
कूड़े में पड़ी रोती है ।
जार बे जार संपूर्ण ,
स्वाँस के साथ बिलखती है ।।

ममता उसकी छलकने लगी ,
करुण धार अश्रु बन बहने लगी ।
सीने से बच्ची को लगाया ,
दुआ में हाथ कई -कई बार उठाया ।।

सीने से लगाकर उसको ,
चिपकाकर ,दुलारकर उसको ।
कहा लाडो तू ना अकेली,
मातृत्व एहसास दिलाती उसको ।।

खूब चूमती ,उसकी बलियाँ लेती,
कैसी बाँझ थी ,दूध की धार बहती ।
रोम-रोम पुलकित था ,
हुआ अंग- अंग स्पंदित ।।

बच्चे की किलकारी से 
झूमती वो बावली ।
माँ कौन है सच्ची, 
समझा गई थी पगली !

माँ बनी ,वह पिता बनी ,
वह बच्चे की ढ़ाल बनी ।
जीवन बनी,संजीवनी बनी,
संबल बनी, एहसास बनी।।

जननी ना थी ,जगदंबा बनी,
मनहूस थी, अन्नपूर्णा बनी ।
साँझ थी, सुबह की आस बनी,
बिटिया के लिए संपूर्ण जहान बनी।।

अंशु प्रिया अग्रवाल 
मस्कट ओमान 
स्वरचित 
अप्रकाशित 
मौलिक अधिकार सुरक्षित

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ