*एक ग़ज़ल*
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खोल दो बेड़ियां कलम आज़ाद रहने दो
लफ़्ज़ों को आवाज़ दे इन्हें आबाद रहने दो
उठती हैं आवाजें गर जुल्म के खिलाफ
जंग लड़ो और बुलन्द भी आवाज़ रहने दो
हुकूमत के सितम सहते रहोगे कब तलक
झुको नहीं, रुको नहीं अलग अंदाज रहने दो
कैद गर कलम हो गई इंसाफ़ फ़ना होगा
सर कटा दो क़लम को जिंदाबाद रहने दो
सियासतदानों की गुलामी से बेहतर है
चुप रहो , सहाफत को बेदाग़ रहने दो
-मोहम्मद मुमताज़ हसन
टिकारी, गया, बिहार
Badlavmanch
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