कुर्ता....
तुमने ना जाने मुझे क्या समझा
कभी सफेद चादर कभी पीली पगड़ी
और कभी पांव का गमछा समझा
मन खुश हुआ तो सीने पर सजा लिया
प्यार से उठाकर माथे पर बिठा लिया
गुजरे उन पलों को कैसे मैं भूल जाऊं
जबमुझे तुमने एक रेशमी कुर्ता समझा।
अब मन ठीक नहीं वह चंचल है
वह घायल है
असफल प्रेम में टूटा है वह पागल है
तब कुर्ता झटक कर सीने से
खूंटी पर उतारकर टांग दिया
सच कहो मुझे उस पल तुमने
क्या टाट का एक टुकड़ा समझा?
यह ना सोचा यह ना समझा
कुर्ते पर क्या बीत रही होगी
बदले आज के इस रुख पर बेचारी
किस्मत को कोस रही होगी
पर नहीं नहीं अब और नहीं
पहने और टांगने के बीच कहीं
एक फर्क पैदा हो गया है यहीं।।
खूंटी पर टंगे रहकर कुर्ते में
लाल चीटियों ने घर बना लिया है
कुर्ते ने भी अकेलेपन से थक कर
उनको ही अपने गले से लगा लिया है
तुम्हारी मनमर्जियां तुम्हें अब
कुर्ते के करीब जाने नहीं देंगी
तुम धीरे-धीरे अपनी जिंदगी से चुकते चले जाओगे
जमा और घटा के इस खेल में तमाम अब एक शून्य से ज्यादा कुछ ना रह पाओगे।।
जयंती सेन 'मीना' नई दिल्ली.
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