ऊधौ को गोपिन का जबाब--
एक रंगीला श्याम जिससे लगाई प्रीत,
निर्गुण ब्रह्म न भावै समझ न आवै रीत!
योग तपस्या साधना की नहीं जाने रीत,
बसे श्याम अंतस,उधौ मन नहीं दस बीस!
दाख छोड कटु निबौरी हम ना चखेंगी,
हम प्रेम-दीवानी जोग जप ना सुनेंगी!
महकी श्वासों में श्याम प्रेम रंग घुला है,
श्याम स्नेहरस नस नाडी में मिला है!
लोकलाज घरबार ग्वाल बाल भूली,
रसिक वेणु की धुन सुन हुईं मतवाली!
कहाँ मिलेगा वो छलिया मन का मीत,
विरह अगन में प्राण श्वांसे विचलित!
वेणुगोपाल पर हमारा सर्वस्व निछावर,
मनहर चितवन अमिय चारू निरंजन!
दुग्ध छाछ में तुम अन्तर नहीं जानो,
हमसे कहते निराकार ब्रह्म को जानो !
ब्रह्म हमारा केवल माधव मन रसिया,
रसिक रंगीला कंटीला मन का बसिया!
कृष्ण बिन तन मन प्राण शक्ति शिथिल,
दिखती जीवित परन्तु, प्राण हैं व्याकुल!
श्याम भ्रमर सी काली बातें करते हो,
तन के काले तुम मन काला रखते हो!
मूलधन अक्रूर जी ले गये संग अपने,
अब भेजा तुमको हमेंं भी समझाने!
कृष्ण अधरामृत रसमय पान किया है,
तनमन धन प्राण श्याम नाम किया है!
ये ठगविद्या योग साधना संग ले जाओ,
निर्गुण ब्रह्म का उपदेश हमें न सुनाओ!
✍ सीमा गर्ग मंजरी
मेरी स्वरचित रचना
मेरठ
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