'बदलाव मंच' राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष दीपक क्रांति द्वारा 'वन-पर्यावरण व दलित आदिवासी जीवन' को समर्पित रचना

वन-पर्यावरण व दलित आदिवासी जीवन को समर्पित मेरी रचना.. 

*जुगनी और जंगल*

जुगनी जंगल जाती है
चुन चुन सूखी लुआठी लाती है
जलती धूप में चलकर जल जाती है
जिंदगी का चौका फूँक फूँक कर
लड़की लकड़ी सी जल जाती है
माचा (झोपडी) में एक बूढ़ी मइया है
और है एक छोटा सा भाई
बप्पा कब के कब्र में चला गया
लोग कहते हैं जंगल में खो गया है
जुगनी रोज जाती है जंगल
अपने बप्पा को खोजने
कभी साखुआ के पत्तों के पीछे
कभी शीशम या महुआ के नीचे
खोजती है बप्पा को
जीती है उसकी यादों को
यह लकड़ी चुनती लड़की
गजब की जिजीविषा है जुगनी का
अभाव में भी जीना जानती है
क्योंकि जल-जंगल-जमीन ही जग हैं जुगनी के
पर सुना है
अब शहर बसने वाला है
और रेलवे लाईन का भी काम होगा
पर क्या होगा जुगनी के "जग" का अब
जहाँ चिड़िया सी दाना चुग-चुग
जुग-जुग जीते आयी है जुगनी
अब तो उसकी मइया का भी कहना था
जुगनी जाएगी
जंगल काटकर बननेवाले रेलवे लाईन पर
काम खोजने
जहाँ अपने खोये बप्पा को खोजने जाती थी
खुली हवा में भी बहना है जुगनी को
जहाँ हवा में भी जहर बह रहा
जुगनी तो मुँहढकनी(मास्क)का
नाम भी नहीं जानती..
दीपक क्रांति गुमला झारखण्ड

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