ज़माना पैसे पे निसार हुआ ,
तमाम रिश्ता तार तार हुआ!
कदम कदम पे कांटे बिछे हैं,
चलना नंगे पांव दुश्वार हुआ!
नफ़रत इंसानियत पर हावी हुई
देखकर मौला ये शर्मसार हुआ !
खुलेंगे उम्मीद के कब दरवाज़े,
कौम से कौम का तक़रार हुआ!
रिश्ते मुफलिसी में टूटे हैं अक्सर,
' अपना ' मानने से इंकार हुआ!
-मोहम्मद मुमताज़ हसन
टिकारी, गया, बिहार
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