कवि चन्द्र प्रकाश गुप्त चन्द्र जी द्वारा 'देवि सर्व भूतेषु' विषय पर रचना

*शीर्षक -  *देवि सर्व भूतेषु*

"देवि सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता"

हे देवि तुम में छुपी हुई है प्रचंड अग्नि की ढेरी 

उस ज्वाला को बाहर लाओ जला दो वासना की ढेरी 

कब तक ममता की मूर्ति रहोगी 

कब तक गरिमा की महिमा ओढ़ रहोगी 

सहने की सीमा अब लांघ चुकी है 

कामुकता सारे बन्धन तोड़ चुकी है

संसद और सरकारें कानून वना कर रह जातीं हैं

फिर भी न जाने कितनी निरभयायें नोंच ली जातीं हैं

बस कुछ आंदोलन कर मोमबत्तियां जला दीं जातीं हैं

मीडिया को मशाला मिल जाता है टी आर पी बड़ा ली जातीं हैं

हे देवि तुम केवल श्रद्धा वन कर रह जाती हो

अखबारों की हैडिंग बड़ी वन कर रह जाती हो 

सतयुग में तुम सती हुई

      त्रेता में तुम छली गई

  द्वापर में निर्वस्त्र हुई

  अब गली गली जलायी गई

अब तो जागो बहुत देर हो गई

काम पिपासा की बाढ़ आ गई

फिर से दुर्गा का अवतार धरो

सारे शैतानों का संहार करो

निशा में भी उर्वशी को मां कहने को बाध्य करो

ले कर हाथ में खप्पर रक्त वीजों का संहार करो

बदल दो कापुरुषों की टेड़ी चाल

जला दो क्रांति की अनूठी मशाल

ममता की पट्टी अब मुक्त करो 

हाथों में शस्त्र शक्ति का स्वरूप धरो 

हे देवि तुम में छुपी हुई है प्रचंड अग्नि की ढेरी 

उस ज्वाला को बाहर लाओ जला दो वासना की ढेरी

       🙏 वन्दे मातरम्  🙏

       चंन्द्र प्रकाश गुप्त चंन्द्र    
        अहमदाबाद , गुजरात

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मैं चंन्द्र प्रकाश गुप्त चंन्द्र अहमदाबाद गुजरात घोषणा करता हूं कि उपरोक्त रचना मेरी स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित है
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