प्रसिद्ध कथाकारा अंजलि खेर जी का उत्कृष्ट फीचर रचना

*मेरी फैमिली-फिल्मिस्‍तानी** 

हर फिल्‍म का एक अलग जायका होता हैं, कोई हल्‍की-फुल्‍की तो कोई धूम-धड़ाके वाली, कोई निहायत रोने-गाने वाली तो कोई समाज को नई सीख देने वाली । फिल्‍म चाहे कैसी भी हो, देखने का एक अलग ही मज़ा होता हैं, चाहे कंपनी ही ना मिले तो भी अकेले ही आनंद उठा लो । 
मुझे याद हैं मैं दसवी कक्षा में थी, तब फिल्‍म  *मैने प्‍यार किया* आई थी, मैं अपनी मम्‍मी के साथ जिद करके फिल्‍म देखने गई थी, वो सलमान का अपने बड़े से बंगले में सीढि़यों पर साइकल चलाना,,,, वाहहहहह, सच मज़ा ही आ गया था । जी करता, काश मेरा भी इतना ही बड़ा घर होता और मैं भी उसमें साइकल से उपर नीचे किया करती ।
किस्‍मत की बात थी कि *दिलवाले दुल्‍हनियां ले जाएंगे*’ फिल्‍म देखते-देखते ना जाने कब प्रेम की पींगे आगे बढ़ी और  यानि अजय मुझे दुल्‍हनियां बना अपने घर ले आये । मुझे शुरू से ही अच्‍छे कपड़े, एक्‍सेसरीज पहनने ओढ़ने और अपने घर को बहुत सजाने का बहुत शौक रहा हैं, हालांकि मेरे पति को इन सबमें कोई दिलचस्‍पी नहीं होती, फिर भी हम दोनों का एक कॉमन शौक था फिल्‍में देखने का ।  जब भी मौका मिलता हम दोनों फिल्‍म देखने निकल पड़ते ।
यूं ही हम फिल्‍म  *जुदाई* देखने गये । फिल्‍म में श्रीदेवी अपने लिविंग स्‍टेंडर्ड को बनाये रखने के लिए ढ़ेर सारे पैसों की खातिर अपने पति अनिल कपूर को उर्मिला मातोंडकर को बेच देती हैं । फिल्‍म देखने के बाद तो मैं घर के लिए किसी भी चीज की डिमांड करूं, मेरे पति कहने लगने कि ये सब खरीदने की मेरी हैसियत नहीं हैं, पर अपने अरमान पूरे करने के लिए तुम मुझे बेच मत देना । सुनकर मैं खिलखिला पड़ती ।
दिन बीतते गये, हमारे आंगन में दो नन्‍हीं कलियां खिली । मां-पिता से विरासत में मिले फिल्‍म देखने के शौक के चलते जब भी मौका हाथ लगता, पूरा का पूरा परिवार पिक्‍चर देखने चल पड़ता । ‘*भूल-भुलैया* फिल्‍म देखकर आने के बाद तो जब त‍ब बच्‍चे मेरी सिंदूर की डिब्‍बी से सिंदूर में पानी मिलाकर अपने मुंह पर लगाकर  *आमी मंजुलिका*’ कहकर मुझे डरा दिया करते थे । फिर थोड़े बड़े हुए तो होमवर्क, प्रोजेक्‍ट वर्क का प्रेशर बढ़ता जाता तो बच्‍चे कहते –‘’मां, काश कि कोई *भूतनाथ* हमें मिल जाता तो हमारा सारा काम वो चुटकियां बजाकर पूरा कर डालता ।  मैं बच्‍चों की बातें सुनकर हैरान हो जाया करती ।

हम जब सपरिवार  घूमने जाया करते, तो अपनी आदत से मजबूर लोगों को सड़क किनारे दीवारों को गीली करते देख बच्‍चे कहते –‘’क्‍या इन लोगों को भी *थ्री इडियट्स* जैसे करेंट लगाया जा सकता हैं, उनकी बातें सच में सोचने को मजबूर कर देती कि% ऐसी फि़तरत वालों की ये गंदी आदतें कभी सुधरेंगी या नहीं ।  फिर बच्‍चे और बड़े हुए स्‍कूल से निकलकर कॉलेज का रूख किया, कभी सफलता तो कभी असफलता हाथ लगती । कभी खुशी तो कभी गम के सैलाब से जिंदगी जूझती । अब हम बच्‍चों की समझ के हिसाब से फिल्‍में देखने जाया करते । 
एक बार मेरी बेटी के केट की परीक्षा के बाद हम सपरिवार *जिंदगी ना मिलेगी दोबारा*’  देखने गये । सच सकारात्‍मकता और प्रेरणा से भरपूर, जिंदगी के हर पल को जिंदादिली से जीने का संदेश प्रसारित करती इस फिल्‍म ने दर्शकों को नई उर्जा से भर सा दिया । *फ़रहान अख्‍तर* की पंक्तियां अक्‍सर बच्‍चे मोबाइल पर सुना करते –

**दिलों में बेताबियां लेकर चल रहे हो, तो जिंदा हो तुम ।* 
*नज़र में ख्‍वाबों की बिजलियां लेकर चल रहे हो तो जिंदा हो तुम* । 
*हवा के झोंकों के जैसे आज़ाद रहना सीखों*, 
*तुम एक दरिये के जैसे लहरों में बहना सीखों*, 
*हर एक लम्‍हें से मिलों, खोले अपनी बाहें,* 
*हर एक पल एक नया समा देखें ये निगाहें,* 
*जो अपनी आंखों में हैरानियां लेकर चल रहे हो, तो जिंदा हो तुम ।*
*दिलों में बेताबियां लेकर चल रहे हो, तो जिंदा हो तुम*

सच फिल्‍में मनोरंजन का साधन तो हैं ही, पर आज के प्रतिस्‍पर्धात्‍मक युग में समाज की नई पौध यानि युवाओं को संदेश देती फिल्‍में प्रसारित होकर पसंद की जाती हैं तो मन सोचने को बाध्‍य हो जाता हैं कि आज भी युवाशक्ति में संस्‍कारों और मूल्‍यों के प्रति आ‍सक्ति बाकी हैं ।

अंजली खेर-
 भोपाल-

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