हे कृष्ण कहो न कि कब आओगे

#लेख 

शीर्षक: हे कृष्ण कहो न कि कब आओगे।

जिस दौर से समूचा देश गुज़र रहा है न वह आने वाली नस्लों के लिए बेहद भयावह और चिंताजनक है। वयस्क महिलाएँ तो क्या अब मासूम बच्चियों में भी ज़िस्म की चाहतों को पूरा करने वाले दरिंदों का दिन-प्रतिदिन हौसले बुलंद हो रहे हैं। बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के बाबत देश की सरकार ने नियम तो कड़े किये परन्तु क्या ये नियम काफ़ी या प्रभावी हैं जो हमारी बहन और बेटी को खुले आसमान और रात के अंधेरे में भी बिना किसी डर या आतंक के घूमने या कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता प्रदान करता हो? क्या हमारे देश के क़ानून में वो ताक़त है जो उन्हें उनकी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त कर सके? क्या हमारे समाज में वो माहौल है जहाँ किसी बेटी को ये न कहना पड़े कि हे कृष्ण! कहो, कब आओगे? ज़वाब आप भी जानते हैं और मैं भी पर इसका समाधान न जाने किसके पास है? बस यही तो विडंबना है क्योंकि जो दूसरों के भरोसे बैठे होते हैं, उनकी मदद ख़ुदा भी नहीं करना। मेरे अनुसार हमें आगे आना होगा। बदलाव ख़ुद से शुरू होकर समाज तक करना होगा। सामने कोई अश्लील फब्तियाँ कसे तो उसको उसकी भाषा में ज़वाब देना होगा पर अफ़सोस तो यही है हमें क्या करना है। चलते हैं बेवज़ह किसी पचड़े में क्यों फंसे? ख़ुद बदलेंगे तो न ज़माना बदलेगा पर हमारी ये सोच कि हमें नहीं पड़ना दूसरों के पचड़े में तो कृपा करके किसी बेटी के प्रति संवेदना व्यक्त करना बंद कर दीजिए क्योंकि इसे मात्र दिखावा कहते हैं। ये दरिंदे कहीं दूसरी दुनिया से नहीं आते ये हमारे आपके घरों के ही होते हैं। फ़ैसला हमारा और आपका है कि हम आने वाली पीढ़ी को और समाज को एक सामाजिक इंसान होने के नाते क्या देकर जाते हैं वर्ना रोते रहिये हे कृष्ण! कहो, कब आओगे?
©® जितेन्द्र विजयश्री पाण्डेय "जीत"
मिर्ज़ापुर-प्रयागराज, उत्तर प्रदेश

स्वरचित, मौलिक और अप्रकाशित। सर्वाधिकार सुरक्षित।

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