कहीं दूर भरी ख़ामोशी में,
चुपचाप खड़ा था वीराना।
कुछ गम सीने में दबाये था,
भीगी पलकों सा वीराना।
दूर खड़ी थी एक हलचल,
उस पर हँसती इठलाती थी।
मैं खुद को अकेला कहता था,
पर मुझसे परे था वीराना।
कहीं दूर भरी ख़ामोशी में,
चुपचाप खड़ा था वीराना।
कहना चाहे किसी से वो,
अपने जीवन की बीती बातें।
ना कोई साथी उसके जीवन का,
और दुख भरी लंबी रातें।
मैंने पूछा ऐ वीराने,
कुछ कहो सुनो हमसे तुमभी।
बड़ा फुट फुट कर रोया,
ना पूछो कैसे था वीराना।
कहीं दूर भरी ख़ामोशी में,
चुपचाप खड़ा था वीराना।
एक फलक मैंने सोचा,
कैसे घुट घुट के जीता होगा।
अकेला है ना कोई साथी,
कैसे गम को पीता होगा।
लाख करी कोशिश मैंने,
के उसको ढंग से जान सकूँ।
अभी तक समझ पाया हूँ यही,
के मर मर कर जीता था वीराना।
कहीं दूर भरी ख़ामोशी में,
चुपचाप खड़ा था वीराना।
मैं देखता हूँ उसके सूने पन को,
सोचता हूँ कुछ लम्हें उसे दे दूँ।
मन बहलाने की खातिर,
उसको अपने कुछ नग़मे दे दूँ।
कुछ देर चुप रहे हम दोनों,
वो बोला हो गर हमदर्द मेरे।
तो साथी अपना कह देते,
हर बार कहा है मुझे वीराना।
कहीं दूर भरी ख़ामोशी में,
चुपचाप खड़ा था वीराना।
अनुराग बाजपेई (प्रेम)
पुत्र स्व० अमरेश बाजपेई
बरेली (उ०प्र०)
८१२६८२२२०२
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