कवयित्री डॉ.ज्योत्स्ना सिंह "साहित्य ज्योति" जी द्वारा 'स्वयंसिद्ध बेटियां' विषय पर सुंदर रचना

नमन मंच🙏🏻💐


"स्वयंसिद्ध बेटियां"

मां के संग चूल्हे की आग में झुलस करके ,
बाबा संग खेत बोझ काटती है बेटियां,
भाई की पढ़ाई न बीच में ही रुक जाए, 
कलम त्याग काम फिर साधती है बेटियां,


कुल की मान मर्यादा गौरव सहेजती वो, 
बाबा के सिर पे पगड़ी बांधती है बेटियां,
भाई की कलाई पे राखी सा कवच बांध ,
जिम्मेदारियों में हाथ बटाती हैं बेटियां,

तन मन धन रोम रोम अर्पित कर हर क्षण वो,
दोनों कुल का संतुलन संभालती है बेटियां,
पर है खड़ा यह प्रश्न मौन एकटक अब पूछता है,
कब तक यूं गर्भ में ही मारी जाएंगी बेटियां?


आंसू के खारे पन को स्वेद का नमक बना ,
असंभव को संभव कर दिखाने लगी बेटियां,
गुड्डे और गुड़ियों संग खेल खेल में देखो,
बस ट्रेन वायुयान उड़ाने लगी बेटियां,

भोले से बालमन को पानी में चन्द्र दिखा ,
दूर गगन चंद्रयान ले जाने लगी बेटियां,
खेल हो या शिक्षा हो,इंजीनियरिंग चिकित्सा हो,
राष्ट्र की कमान को भी संभालने लगी बेटियां,

रुद्र की वो कालिका सी रूप धर प्रचंड बन,
फिर बॉर्डर पर गोलियां चलाने लगी बेटियां,
देश हो विदेश हो या कोई परिवेश हो ,
हर कदम स्वयंसिद्ध बताने लगी बेटियां,

पर अब भी है प्रश्न मौन एकटक यही पूछे,
कब तक यूं गर्भ में ही मारी जाएगी बेटियां ?
सभ्य सुशिक्षित सुसंस्कृत समाज बोलो ,
क्यों नहीं खुशी से जन्म पाएंगी बेटियां?
    
  डाॅ ज्योत्सना सिंह "साहित्य ज्योति"

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