नफरत के सिलसिले बने सपनों के निशान

नफरत के सिलसिले बने सपनों के निशान 
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घर से निकला था अकेला ,
आसमां लेकर ।
राहों में मिला राही ,
आसमां लेकर ।।
जिनसे भी गर कहा ,
साथ चलने को ।
प्रति-उत्तर में मिला ,
घर बदलने को ।।
घूमता था दर-बदर ,
इम्तिहाँ देकर ।
राहों में मिला राही ,
कारवां लेकर ।।
देखूँ में जिस कली को,
फूल मिलती थी ।
नदियों के किनारे भी,
धूल मिलती थी ।।
आया है समय-संगम ,
बागवाँ लेकर ।
राहों में मिला राही ,
कारवां लेकर ।।
पहले जो ना समझते ,
हकीकत की जुबान।
नफ़रत के सिलसिले बने ,
सपनों के निशान।।
आ गये हैं "अनुज "वे भी ,
आशियाँ लेकर ।
राहों में मिला राही ,
कारवां लेकर ।।

डॉ अनुज कुमार चौहान "अनुज "
अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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