कवि बंसीधर शिवहरे जी द्वारा 'बेटी' विषय पर रचना

बेटियांँ

बेटी पूछती मांँ से क्यों,
जग मुझे पराया कहता है ।
जो खून भाई के नस में हैं ,
मेरी भी रगों में बहता है ।।

बेटी ना किसी से कम है यहां,
बेटी बेटों से है बढ करके ।
बेटी सेना में दुश्मन से ,
लड़ती है बढ़-चढ़कर के ।।

बेटी जो होगी नहीं अगर,
संसार का चलना मुश्किल है ।
बेटा फिर कहां से आएगा,
बेटा का आना मुश्किल है ।।

बेटा मम्मी की प्यारी हैं ,
बेटी पापा की दुलारी है ।
है फूल ये बगिया का जिसमें,
महके सारी फुलवारी है ।।

मांँ मुझको पेट में मत मारो,
मुझको दुनिया में आने दो ।
मुझे कली में मत तोड़ो,
मुझे फूल बन जाने दो ।।

कितना भी कमाओ बेटों को,
फिर भी कमी रह जाती है ।
बेटी को जितना भी दे दो ,
उतने में खुश हो जाती हैं ।।

वो सारे रिवाजों को बंद करो,
जो बेटी को ना बढ़ाने देते हैं।
वो मां-बाप को जाकर समझाओ,
जो बेटी को ना पढ़ने देते हैं ।।

इनको झांसी की रानी सा ,
अब निडर बनाना ही होगा ।
तब जाकर दुनिया से लड़ने का,
इनमें साहस आ पाएगा ।।

काली दुर्गा का रूप है ये,
है रूप यही मांँ चंडी का ।
यह चाहे चकनाचूर करें ,
मद बड़े से बड़े घमंडी का ।।

       बंशीधर शिवहरे
      सिवनी मध्य प्रदेश

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