पाखी और मैं#जयंती सेन 'मीना'जी द्वारा बेहतरीन रचना

पाखी और मैं

पाखी...ओ पाखी जरा सुनो, इधर देखो । तुमसे कह रही हूं तनिक ठहरो जरा रुको।
मैं जब भी हवाओं के परों पर,
तुम्हें सवार देखती हूं ,
तुम्हारी देह के रंगों के बिखराव में
अपने टूटे मन का बिखराव पाती हूं ।
है ना कहो, तुम्हारे मेरे मन की उड़ानों में रफ्तार का सुहाना एक अनकहा रिश्ता--
जो दुख दर्द की बस्ती से ,
हम दोनों को उड़ा कर 
क्षितिज के उस पार ले जाता है ।
जहां न कोई दुख और नहीं दर्द भरा ,
कोई रिश्ता ही रह पाता है।।

सुबह- सवेरे सूरज की किरणों को 
अपने परों में समेटे तुम,
मेरे कमरे की खिड़की पर उतार देती हो।
तुम्हारी गोद से उतर कर 
नन्हा लाल सूरज पूरे छत पर,
खूब धमाल चौकड़ी मचाता है।
और 'सुनहरी धूप' का खूबसूरत जाल सारे संसार पर बिछा देता है ।।

फिर मैं भी तो पूरी दस सीढ़ियां लांघ कर, तुम तक पहुंच जाती हूं ।
टूटे कोने वाले मिट्टी के कटोरे में ,
ठंडा पानी भरकर 
तुम्हारे प्यासे होठों को 
तर-बतर कर देती हूं ।।

तुम्हारे लंबे सफर की थकान उतरते ही तुम्हारी प्यास जरा सा बुझते ही ,
तुम अपनी सफर की दास्तान मुझे
चहक - चहककर सुनाती हो ।
सब कुछ समझ आ जाए इसलिए ,
छत के कपड़े सुखाने वाली रस्सी पर ,
फुदक-फुदक कर मुझे सफर का 
पूरा हाल बताती हो।।

कहो पाखी! मैं कब तुम्हारी तरह, 
हवाओं के परों पर सवार हो सकूंगी?  आसमान के सीने पर लिखा पता पढ़कर
दूर गगन के उस पार पहुंच जाऊंगी--
जहां तुम चहचहा कर,
सप्तम सुर में गाओगी
और मैं आंखों में चमक भरकर ,
तुम्हारी सुरीली तान से अपना ,
बिखरा तान मिलाऊंगी
और पूरे जगत में छा जाऊंगी ।

.
यह मेरी स्वरचित एवं नितांत मौलिक रचना है। मेरे पास सर्वाधिकार सुरक्षित हैं।


जयंती सेन 'मीना' नई दिल्ली।9873090339.

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ