हिंदी-शिक्षक,परमाणु ऊर्जा केंद्रीय विद्यालय अखिलेश कुमार द्वारा रचित कविता 'हिंदी का दर्द'

हिंदी का दर्द

किससे अपना दर्द कहूँ मैं घर में हुई पराई हूँ,
ऐसा लगता है मुझको मैं दूर देश से आई हूँ।
होता है अपमान यहाँ मैं घूँट ज़हर का पीती हूँ,
अपने ही घर में यारों मैं घुट-घुट कर ही जीती हूँ।

एक रात मैं सोते-सोते यूँ सपनों में खोई थी,
आँख खुली जब तंद्रा टूटी फूट-फूट कर रोई थी।

सपने में मैंने यूँ देखा मैं रचनाएँ रचती हूँ,
हिंदी हूँ, हर हिंदुस्तानी के दिल में मैं बसती हूँ।
मैं दुल्हन के मस्तक पर भी बिंदी जैसी सजती हूँ,
गीत और संगीतों में भी झंकृति जैसी बजती हूँ।

लेकिन मेरी आँख खुली तो देखी सब तनहाई थी,
डाँवाडोल  है मेरी स्थिति बस इतनी सच्चाई थी।

मेरा तो अपने ही घर में होता है अपमान यहाँ,
बीवी आई भोली-भाली माता का सम्मान कहाँ।
निज भाषा से बढ़कर होता पर भाषा का मान जहाँ,
राष्ट्र गर्त में जाएगा या आएगा तूफ़ान वहाँ।

जो दूर देश आई है मैं उसकी आज गुलाम बनी,
धिक्कार तुम्हें है ऐ-बेटों, जो माता तुम पर भार बनी।

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