*स्वरचित रचना*
*कैसे छोड़ू*
बढ़ते कदम को कैसे रोकू।
जब राह में हूँ तो कैसे टोकू।।
ये जिन्दगी से जीता नही मैं।
तो ख़ुदको सब्बासी कैसे दे दू।।
मन्जिल दूर है किंतु मैं मजबूर नही।
आगे बढ़ने के अलावा कोई फितूर नही।।
फिर साथ मिले या ना मिले फर्क नही पड़ता।
किन्तु स्वयं से किया वादा कैसे तोड़ू।।
ताना बाना मेरे लिए कुछ नही है।
क्योंकि बिना किये कुछ नही है।।
वैसे तो पैगाम लिखकर अधूरे पड़े हैं।
किन्तु ये तो कर्मों का खत है बिना
लिखे अब भला मैं खाली कैसे छोड़ू।।
तब भी लोग तमाशा बनाते थे।
अब भी तो वो तमाशा बनाएंगे।।
तब भी भरोसा नही था दिखाया।
अब भी वो भरोसा नही दिखाएंगे।।
तो बता दो जरा ओ दुनियां वालो।
जो मुहीम छेड़ी है हमने खुलेआम
उन मुहिम को अधूरा कैसे छोड़ू।।
प्रकाश कुमार
मधुबनी, बिहार
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