कवयित्री मीनू मीना सिन्हा मीनल विज्ञ जी द्वारा 'असुरक्षित औरतें' विषय पर रचना

असुरक्षित औरतें

 मैं रातों में सो नहीं पाती 
 तरह-तरह के चेहरे घेरते हैं मुझे।

 गड्ड-मड्ड होती सारी सूरतें एक दूसरे में समाती 
ज्वार-भाटे में बहती-डूबती खो जाती हूंँ मैं 
मांँएंँ, बहनें, बेटियांँ बेचैन औरतों का सिलसिला 
शयनकक्षों में घुटती चीखें, धक्का खातीं, गिरती-पड़तीं।

झिड़कियांँ झेलती,अपने को बचाती
सजी-धजी चेहरे पर मुस्कान 
सर्जरी करती, स्कूल-कॉलेज जाती, लैपटॉप पर लक्ष्य पूरा करती 
घर से बाहर, बाहर से घर।

घरेलू औरतें! करतीं क्या? दिन भर तो यही करना है 
दौड़ती-हांँफती औरतें 
नाश्ता, लंच, डिनर-सपर सबको संँभालती 
मुखोटे में अपने को छुपातीं।


पिता, पति ,भाई -औरतों के रक्षाकवच 
सूट-टाई बांँधते, घरेलू पचड़ों में नहीं पड़ते 
आराम से जाते, कुछ थके से आते, दिनभर अपने को संँभालते 
शांत, सौम्य, शिष्टाचारी, औरतों की बातों में नहीं आते।

सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए अत्याचार करते 
देश राजनीति की बातें करते 
व्यवस्था को कोसते, गरियाते,बहसबाजी करते 
सारे सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करते 

माँओं की उम्र गुजर गई सर पर पल्लू संँभालते। 
बहनें रोती, सिसकती, दुपट्टे से आंँखें पोंछती 
बेटियांँ तड़पती, छटपटाती 
एक अंँधेरी गुफा में सारी समातीं।

सतरंगी दुनिया का स्याह सच 
तन्हा और असुरक्षित औरतें 
जिंदगी के धीमे जहर को पीतीं पल-पल मौत के करीब जाती औरतें।

  मैं रातों को सो नहीं पाती 
तरह-तरह के चेहरे घेरते हैं मुझे।।

 मीनू मीना सिन्हा मीनल विज्ञ
राँची

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