कवयित्री चंचल हरेंद्र वशिष्ट जी द्वारा रचना खुद की तलाश'

'खुद की तलाश'

आज किरदार नया एक  तराशा जाए
चलो ख़ुद को ख़ुद में ही तलाशा जाए

नफरतों से भरी हुई इस दुनिया में अब
क्यूं न प्यार अब ख़ुद से ही किया जाए

नुक्स ढूंढने वाले तो मिलेंगे बहुत  यहां
चलो खुद की ही खूबियों को सराहा जाए

वक्त पर हम   क्यूं न वक्त के साथ चलें
हमेशा वक्त को ही दोष क्यूं दिया जाए

हसरतें मन में ज़रा भी... न रहें बाकि 
पूरे ख़ुद ही शौक़ अपने सब किए जाएं

आओ,बैठो,चलो निकालें हल मुसीबत का
बुरे नसीब का रोना हरदम न रोया जाए

गिराने वालों की कमी नहीं है दुनिया में,
अपने आप को अब खुद ही सँभाला जाए

उम्मीद रखो न बेदर्द इस ज़माने से
आस का दामन अब खुद ही थामा जाए

मन है इक आइना जो झूठ बोलता ही नहीं
तो फिर सच को ख़ुद में ही खोजा जाए

ये जो तस्वीरें हैं,धोखा भी हो सकती हैं
अपने आप को दर्पण में  निहारा जाए

बहुत सजाया है इस माटी के तन को तूने
'चंचल ' इस मन को अब तो सँवारा जाए

चंचल हरेंद्र वशिष्ट
हिन्दी अध्यापिका,कवयित्री एवं रंगकर्मी
आर के पुरम, नई दिल्ली

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