मैं स्त्री हूँ
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मैं भी प्राणी हूँ इस धरती की,
बना हुआ तन हाड़-माँस का।
मैं भी इंसान धरती की जिंदा
मैं भी बुन सकती हूँ सपने।
उड़ सकता है मन भी मेरा,
अम्बर पर उड़ता जैसे परिंदा।
प्रकृति का सुंदर सृजन हूँ ,
मुझसें सारी कृति धरा की,
मै सारी प्रकृति हूँ, मैं स्त्री हूँ।
मैं भी बन सकती स्वालंबी,
मुझें शिक्षा का अवलम्बन दो।
मैं तो हूँ पुरुष का संबल
मुझकों भी थोड़ा हम्बल दो।
कैद करो मत पिंजरे में मुझकों,
सारी दुनियाँ में भ्रमण करने दो।
काटो न तुम पंख हमारे ख्वाबो के,
मुझें ख्वाबों में रंग भरने दो।
अपनें खुली आँखों से दुनियाँ के,
सारे स्वर्णिम रंग निरखने दो।
धरती को लहलहाने वाली पुष्पों से,
कोमल कलियों का सृजन हूँ।
सारी सृष्टि का नव रूप मुझसें ,
जगत को जीवन देनेवाली मैं स्त्री हूँ।
जननी,भार्या,भगिनी,दुहिता सर्वरूपा,
मैं ही शक्तिस्वरूपा दुर्गा,चंडी काली।
माता रूप में बनती मैं रक्षा करनेवाली,
ममता की शक्ति से पुरित,मैं स्त्री हूँ।
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स्वरचित और मौलिक
सर्वधिकार सुरक्षित
रचनाकारा-:शशिलता पाण्डेय
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