ध्येय पथ#एल एस तोमर जी द्वारा शानदार रचना#

**लघु कथा* 
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           बदलाव मंच

               

                  *ध्येय पथ*

भूखी गिद्ध दृष्टि की भूख में वह भूखा भिखारी सी भरसक वेश  भूषा में परेशान चला जा रहा था वह नादान सुनसान रेगिस्तान को जलते हुए समशान सी तपन में, पार करता हुआ ।

हां वह नादान ही था ,लिये था स्वपन बस एक ही लगन - ध्येय पथ।

ध्येय धड़कन में धड़कता था ध्वस्त करना है उस धवल धामनी ऊंची चोटी को जिससे चीन के सैनिक अपनी सनक में मां भारती के लालों को अपने शस्त्रों से परास्त कर सकते थे।
परन्तु ना तो चढ़ने के लिए कोई यंत्र था ना कोई सहारा,मगर वह हिम्मत नहीं हारा, लगाकर भारत मां का  जय कारा , पहुंच गया रेत से हिमालय के गरम चुभती हुए बिन तराशे पाषाणों पर।
प्यास थी परन्तु पानी की ना आस थी,पेट से भूख की आवाज थी,थका नहीं था वह जल धारा एक पास थी।
बुझाने को प्यास ज्योंहि डाला निर्मल जल में हाथ,
तीव्र स्वर गूंजा कौन है वहां,यह जल पीना है मना ,इसकी धारा में चीन से गिराए गए रसायन हैं।
ये स्वर पहाड़ों के राजा के सेवक का था,आओ मेरे साथ मै सेवक हूं।
नहीं नादान ने कहा मुझे अपने पथ जाना है, क्या पथ है तेरा कहां ठिकाना है, मै सेवक हूं मेरा धर्म तुम्हें राजा के पास ले जाना है।

राजमहल में राजा , रानी उनकी एक पुत्री राजकुमारी स्वरूपा, धनकुबेर शानोशौकत के साथ उपस्थित थे।
राजा ने नादान पथिक को भोजन कराया तथा कुछ दिन आराम करने का आग्रह किया,उस सुन्दर दृढ़ संकल्पित नादान युवक ने राजा का आग्रह स्वीकार नहीं किया।
प्रथम दृष्टि में मोहित सुसंस्कृत सुशील संयमित  सुंदरिक स्वरूपा ने जाते हुए उस सुकल्पित युवक का हाथ पकड़ लिया,
मैंने आज तक किसी पुरुष का स्पर्श नहीं किया, नहिं ऐसा कभी सोचा है, राजपुत्री हूं , धन दौलत ख़ज़ाने सुख सैय्या के साथ आज अपना हृदय मैं तुम्हें सौंपती हूं, तुम्हे पति वर सर्वस्व स्वामी स्वीकार करती हूं मेरा वरण कीजिए।
युवक ने जग मोहिनी देव लुहावनी  स्वरूपा के सुन्दर यौवन को निहारा उसकी नेत्रों में उमड़ते प्यार के आंसुओं के समुन्दर को देखा , राज शाही ठाठ को निहारा जो अगले पल उसका होने जा रहा था, उसकी स्वीकारोक्ति उसके शून्य जीवन को अनन्त सुख के सागर में सैर कराने जा रही थी।
किन्तु स्वर्णिम अवसर का हाथ उसने अपने हाथ से छुड़ा लिया,स्वरूपा के आंसुओं को सहानुभूति के मौन संयम से पौंछ डाला।
मुख से शब्द निकले ध्येय पथ।
वह नहीं रुका , मुड कर भी नहीं देखा , 
उसके लग्न शील प्रयासों से चोटी मिल ही गई जिसकी उसे तलाश थी।
परंतु चढ़े कैसे, तोड़े कैसे, ना रस्सी ,ना कुदाल ,ना बम ,ना ढाल।
किन्तु ना हारना था ना हारा, नीचे से ही पत्थर पे पत्थर मारा, और मारता गया,मारता गया।
धीरे धीरे पत्थरों की परत  उतारता गया।
खोखला कर दिया दानव चोटी को, पलट कर नहीं देखा प्यास और रोटी को।
आखिर धराशाई होकर वह चोटी नीचे गिर गई, चीन के अनेकों सैनिक मारे गए, वह बन्दी बना लिया गया युद्ध बन्दी।
चीन के क्रूर शासक ने उसे सरेआम लटका दिया, भारत माता की जय बोलकर वह हंसते हंसते संसार से विदा हो गया, वह जिंदा है अब भी जो भारत मां पे फ़िदा हो गया।

चीन अब डर गया था।
उस नादान के साथ ही चीन का हौंसला भी मर गया था।

               जय हिन्द

 *मौलिक स्वरचित अप्रकाशित* 
 *एल एस तोमर मुरादाबाद यूपी*

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