कवि आशुकवि प्रशान्त कुमार"पी.के."जी द्वारा 'बेटी' विषय पर रचना

सादर नमन आप सभी को आज  विषय - बेटी दिवस पर *रिश्तों की खातिर* पर प्रस्तुत हमारी आज की रचना है बड़ी परंतु अति आवश्यक विषय वस्तु और अभिव्यक्ति पर आधारित है प्रस्तुत है *रिश्तों की खातिर एक मजबूर पिता का, और एक बेटी का बलिदान।*


         *रिश्तों की खातिर*

मजबूर पिता ने बेटी की खुशियों का सपना देखा।
इस बेगानी दुनिया में उसने हर इक में अपना देखा।।
अरमान सुता की डोली का मन में निज उसने बसाया था।
सपने की खातिर उसने सर्वस्व दांव पर लगाया था।।

लड़के वाले थे खुशी बड़े बेटे का ब्याह रचाएंगे।
बहू के साथ भारी दहेज, और बी.एम.डब्ल्यू मंगाएंगे।
हाथ में मोटी गड्डी ले बेटी को घर में लाएंगे।
लगनी गाय सा हर महीने, नित नए तोहफे मंगाएंगे।।

आया समय फिर आखिर वो, अरमान पिता का पूरा हो।
बेटी के *रिश्तों की खातिर* कोई ख़्वाब कभी न अधूरा हो।।
पर हाय बदकिस्मती गरीबी की,
विधिना की विधि ना टाली गयी।
चन्द रुपयों की खातिर मजबूर,
पिता की पगड़ी उछाली गयी।।

जैसे तैसे घर गिरवी रख, बेटी को घर से विदा किया।
भूखे भेड़ियों को पंजो में, नाजुक बेटी को सौंप दिया।।
पर भूख भेड़ियों के पैसों की फिर भी न जरा भी शांत हुई।
अब पैसे के आगे रिश्ते की हर इक बातें एकांत हुईं।।

मिलकर एक दिन उस बेटी को, उन सबने खूब परेशान किया।
मारा डाँटा, काटा पीटा, गुनाहों को कई अंजाम दिया।।
मजबूर पिता की मजबूरी पर बेटी ने मिलकर साथ दिया।
*रिश्तों की खातिर* हर जुल्म सहा, पर उफ़्फ़ न किया।।

तिल तिल कर मर, मर मर जीकर जग में न किसी से कुछ बोली।
जिंदा रहते उठ गई उसके हर इक स्वप्नों की हर इक डोली।।
सास, ससुर, पति ने मिलकर, सारी सीमाएं पार की।
डीजल, पेट्रोल और मिट्टी के तेल,
से जला के बेटी मार दी।।

रही तड़पती, जलते जलते मौत की नींद वो सो गई।
रिश्तों की खातिर बेटी बेगाने रिश्तों में खो गयी।।
अफ़सोस ये दुनिया जालिम बन, क्यों नही समझती बात को।
मजबूर पिता के ख्वाबों को, पी.के. इक बेटी के जज्बात को।।

 आशुकवि प्रशान्त कुमार"पी.के."
    पाली हरदोई(उत्तर प्रदेश)

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