कवि अजीत कुमार जी द्वारा रचना (विषय-दैनिक मजदूर)

दैनिक मजदूर
***********
हम दैनिक मजदूर  हैं, मजबूर हैं, इसीलिये तो -
दुनिया की गतिविधियों से दूर हैं।

हम गाँव से शहर तक नित्य सफर करते हैं,
कभी बस से तो कभी रेल से लटककर पहुंचते हैं।
साथ होता है छोटा सा भोजन का थैला,
चारों तरफ से उमड़ पड़ता है मजदूरों का रैला।
सभी नियत स्थान पर होते निगाहें गड़ाये,
कोई बाबू साहब आकर हमें काम पर ले जाये।
बाबू साहब आते हैं फिर तय होती है मजदूरी,
उम्मीद भरी निगाहों से सभी देखते हैं-
क्योंकि सबों की होती है काम की जरूरी।
किसी के बच्चे बीमार हैं, 
तो किसी के घर नहीं सुलगे हैं चूल्हे।
शाम को उम्मीद थी सुलगने को चूल्हे।
इसी मजबूरी का फायदा उठाते हैं बाबू साहब,
यही होती है दैनिक मजदूरों की व्यथा।
हम दैनिक मजदूर  हैं, मजबूर हैं, इसीलिये तो -
दुनिया की गतिविधियों से दूर हैं।

पांच साल में एक मौसम ऐसा भी है आता।
बिना कमाये कई  गुणा मजदूरी यूं मिल जाता।
भीड़ का हिस्सा बनना है या कतार में दिन भर लगना है।
मनचाहा भोजन कर उसके नाम का माला जपना है।
महीना दिन के लिए काम की चिंता न होती।
नये - नये कपड़े सबके सुकून से मिलती रोटी।
लोकतंत्र के रखवाले हो वो हमें बताते,
मिठी - मिठी बातें कर, अपना स्वार्थ सिद्ध करते।
पैसे की गंगा बहाकर ले लेते हैं वोट,
फिर वो पांच साल तक करते रहते हैं चोट।
हम साथ दें तब भी मरें, ना दें तब भी मरें।
हमें तो होती है बस पेट की आग बुझाने की।
यही होती है दैनिक मजदूरों की व्यथा -
हम दैनिक मजदूर  हैं, मजबूर हैं, इसीलिये तो -
दुनिया की गतिविधियों से दूर हैं।

अजीत कुमार
गया, बिहार

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ