अन्तर्मन की विवश वेदना चीख चीखकर बोल रही है
माँ के आसूँ सागर जैसे दुखित निलय बिष घोल रही है
शब्द कंठ से निकल न पाये अश्रु शब्द की धारा बहती
माँ की गोदी मे जो खेली, वही नही,माँ क्यो चुप रहती
उठो ह्रदय की राज कुमारी पिता यही अब शब्द पुकारे
पडी हुई अर्थी पर बेटी लगता है हर शब्द नकारे
मात-पिता भगिनी-भ्राता के स्वर से धरा भी डोल रही है
अन्तर्मन की विवश वेदना चीख चीखकर बोल रही है ।
जिस गोदी ने तुम्हे खिलाया आज पुन: है वह दिन आया
पिता सुता की भेट है अन्तिम फूट फूटकर दिल चिल्लाया
आज खत्म रचना इस जग से ईश्वर ने है उसे बुलाया
मात-पिता का मोह छोडकर उसको ईश्वर का घर भाया
ईश्वर की ममता इस जग को दुख से कैसे तोल रही है
अन्तर्मन की विवश वेदना चीख चीखकर बोल रही है
अर्पण शुक्ला
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