"बेरोजगारी " पर कविता...
पढ़ - लिखकर भी अनपढ़ जैसी
छायी क्यूँ बीमारी है,,
दूर हुई ना बेरोजगारी
चारों तरफ लाचारी है,,
कब होगा विकास यहाँ पर
पूँछ रही नवशक्ति यहाँ ,,
आज के दौर में नामुमकिन सी
नौकरी ये सरकारी है,,
पढ़ - लिखकर भी अनपढ़ जैसी
छायी क्यूँ बीमारी है,,...
आने से पहले बोला था
रोज़गार ले आयेगें,,
आर्यावर्त को मिल - जुल कर हम
विश्व गुरू बनायेगें,,
आये कहाँ अच्छे दिन बोलो
पूँछ रहा है ये भारत,,
अब तो बस ठोकर ही मिलती
कैसी मारा - मारी है,,
पढ़ - लिखकर भी अनपढ़ जैसी
छायी क्यूँ बीमारी है,,...
दिन को चैन ना रातों को नींदें
संघर्ष बड़ा अब दिखता है,,
हार ना हो विश्वास की अब
कोई स्वप्न नयन ना टिकता है,,
घर - परिवार की कान्धे पे
कुछ ऐसी ज़िम्मेदारी है,,
पढ़ - लिखकर भी अनपढ़ जैसी
छायी क्यूँ बीमारी है,,...
कोई भीख नहीं हमें हक दे दो
सुन लो हुंकार हमारी ये,,
कर सिंहनाद अब है रण में
ना उचित है नीति तुम्हारी ये,,
जो बीत गया ये भोर पहर
ना कहना किरणें हारी है,,
पढ़ - लिखकर भी अनपढ़ जैसी
छायी क्यूँ बीमारी है,,....
प्रीति पान्डेय 🙏🙏
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