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बन गया कलि काल में क्यों क्रूर मानव ,
निज पथ से हो गया क्यों दूर मानव ।
मानवता सुचि में ही हरदम पलना था ,
तुम्हें सृष्टि शरताज यहाँ तक चलना था।
मात -पिता,गुरूजन की सेवा छोडकर ,
परलिप्सा स्वार्थ से नाता जोडकर।
ढ़ला नहीं क्यों जिसमे तुझको ढ़लना था।
तुम्हे सृष्टि शरताज यहाँ तक चलना था ।
दीन-दुखी ,अबला-अनाथ सेवा भूला ,
धन ,बल मद में रे मानव नाहक फूला ।
पर्वत सी पीडा में पर की गलना था ।
तुम्हे सृष्टि शरताज यहाँ तक चलना था।
प्यार से अत्याचार सदा मिटाना था ,
दीपक बन कर आलोक फैलाना था ।
भलाई की बाती तेल से जलना था।
तुम्हे सृष्टि शरताज यहाँ तक चलना था।
पुनः मिले नर जीवन नेक काम करो ,
परहित परमार्थ ही शुबहो -शाम करो।
मन को "बाबूराम कवि " नित मलना था।
तुम्हे सृष्टि शरताज यहाँ तक चलना था।
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बाबूराम सिंह कवि
ग्राम-बड़का खुटहाँ ,पोस्ट -विजयीपुर (भरपुरवा )
जिला -गोपालगंज (बिहार )
मो0नं0 - 9572105032
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