स्वरचित रचना
भूल गए।
जब से तुमको देखा है हमने
की शायरी करना भूल गए।
अपने आप पर रहा ना काबू।
सारे कानून सारे असूल गए।।
दिमाग का ना कोई ठिकाना रहा।
अब घर बार सब मयखाना हुआ।
नजर भर की क्या जख्म थी भला।
हम कही आना जाना भूल गए।
एक तो तुम्हारा सोलह श्रृंगार।
ऊपर से हवा की बहे ठंडी बयार।
ऊपर से तिरछी की निगाहों शरारत।
हम तो खुदके ठिकाना भूल गए।।
मूझको प्रेम का ऐसा चसका लगा के।
कहाँ जाते हो दिल की अगन जगा के।।
कहने वालों को कहने दे फिरभी।
दूसरों को अपना बताना भूल गए।।
हाई ऐसे जो देखा ऊपर से तुमने।
हमको ख़ुदसे बेगाना बना ही दिया।
तुमने मूझको स्वयं में बेघर करा ही दिया।
अब तो रहा ना होश कुछ भी।
क्या नाम पता अपना सब भूल गए।।
*प्रकाश कुमार मधुबनी*
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