एक संसमरण/एक लघुकथा !!
रोटी बेलते बेलते , नीला पूछी
"मैडम , आपके देवर डॉक्टर हैं न ? ",
मैं पूछी, " क्या हुआ, सब ठीक तो हैं न ?
बेटी, बेटा , घर पर सब कुशल से हैं न ?"
“जी मैडम !” , बस इतना बोल वो चुप हो गयी।
फिर गैस पर सब्जी चढ़ाकर , आटें में गुम हो गयी |
एक बेचैनी सी झलक रही थी ,
कुछ परेशानी सी दिख रही थी,
एक झिझक सी महसूस हो रही थी।
“मैडम , एक बात बोलूँ ?
आप तो शहर से हैं , डॉक्टर के रिश्तेदार भी हैं ,
बच्चे का लिंग जांच करवाना हैं ,बहन पेट से है।
पहली वाली तो वैसे ही बेटी हो गयी , अब बस बेटे की ही आस है| “
बस इतना सुन, मेरा खून खौल गया था ,
मेरा पूरा शरीर सुन्न सा हो गया था
कुछ और न सुन्ना, ये ठान लिया था| |
दिमाग ठीक तो हैं न, हत्या कर डालोगी ?
बिटिया हुई तो , गिरा डालोगी ?
भगवन से न सही , कानून से तो डरो। “
पत्ते की तरह काँप रही थी, ये खून हैं ,
ये पाप हैं , ये सोच सोच मन ही मन रो रही थी मैं।
“ऐसा क्यों करते हो ? बेटी तुम क्यों नहीं चाहते हो ?”
नीला मुस्कुराते हुए बोली , “मैडम, आप बड़े लोग हैं , पढ़े लिखे हैं ;
आज भी , गांव में बेटी बोझ हैं ,
दहेज़ की डर से , हम तो बस बेटा ही चाहे हैं।
गांव में पैसा देंगे और डॉक्टर सब बता देगा ,
आप ये दिखावा शहर में ही दिखाते हैं , मन ही मन सब बेटा ही चाहते हैं।
अगले दस महीने , वो मेरे घर नहीं आई |
अगले दस महीने रोटी मैंने खुद ही बनाई ,
अपराध बोध की ग्लानि , मन में थी छाई।
उसने मेरे घर खाना बनाना छोड़ दिया |
मेरा मन मुझे रोज़ कोसता रहा , कहीं मैंने एक बिटिया को मरने तो नहीं दिया।
एक दिन , फिर बाजार के रास्ते नीला दिखी|
साथ एक दूसरी स्त्री भी थी ।
गोद में ६ महीना का बेटा ; और एक २ साल की बेटी ,
हाथपकड़ साथ चल रही थी |
मन ही मन , मैं चाह रही थी ,
यह वही बहन हो , और उसका वही बेटा हो ,
यही सोच रही थी ।
“मैडम , सुनिए !! आप अब भी गुस्सा हैं क्या ?
देखिये भगवन ने सुन ली , बेटी नहीं बेटा दिया। “, नीला ने दूर आवाज़ लगाई |
उसके आँखों में चमक थी , जो मन ही मन मुझे कचोट रही थी ,
उस चमक की रौशनी से , ज्यूँ चुभ सी रही थी।
पर एक और बेटी नहीं मारी गयी , इस बात से थोड़ी आश्वस्त थी।
पहली बार शायद, अनमने मन से, भगवन से बोल पड़ी – “भगवान् अच्छा हुआ , उसे बेटा हुआ।“
“मुबारक हो , बेटा हुआ।
पर एक वादा करो ,
अपनी बेटी को खूब पढ़ाओगी ,
बेटे के शादी में दहेज नहीं लोगी ,
पढाई में मदद मैं कर दूंगी, ट्यूशन भी मैं पढ़ा दूंगी ,
पैसा ऐसे भी बचा थोड़ा लेना, पर न ,दहेज़ देना न लेना!
बस इतनी मदद कर दो , फिर कोई माँ न बोले, बेटी नहीं चाहिए , दहेज़ नहीं दे पाऊँगी|”
दो महीने बाद वह फिर आयी , “ जी मैडम! सॉरी , गलती हो गयी | समझ गई !!”
पर कहीं मन नहीं माना ,
जाने और कितने हैं ऐसे ,
जिसने बेटी को बस बोझ ही माना।
कहीं समाज की कुरीतियाँ एक बहुत बड़ी कारण हैं ,
जिसके परिणाम स्वरुप , बेटियाँ आज भी कहीं अनचाही हैं।
कहीं, मैं भी उतनी ही दोषी थी , गुनाह देख , जब चुप बैठी थी ।
सुदेष्ना, हैदराबाद. 27-09-2020
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