"पतंग"
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बेजान कागजों पर
इंद्रधनुषी चटक रंगों से गढी गई
मैं पतंग..........।
किसी हुनरमंद हाथों की
बेहतरीन कलाकारी ।
उन्मुक्त उड़ान भरने को आतुर
शोख हवाओं से खेलती
चंचल ,अल्हड़ ,अलबेली
नीले अनंत को निहारती
बस उसी ओर बढ़ती चली जाती हूं।
भूल जाती हूं कि..
मेरी डोर तो धरती से जुड़ी है।
चरखी में लिपटा मांझा
रोक सकता है मेरी उड़ान
और काट सकता है
मेरे अस्तित्व के अदृश्य पंखों को।
सहसा डोर से कट जाने पर
हवा के थपेड़ों से पड़ी
तमाम चोंटें ....
अनजाने ही उभर आती हैं जेहन में।
छीना झपटी में तार -तार होता
वजूद ....और
तारों, टहनियों में उलझे
अनिश्चित बसेरे के भय से
कांप उठती हूं.......!
फिर रोक लेती हूं स्वयं को
और सौंप देती हूं खुद को
उन्हीं सधे हाथों में
जिनकी डोर से बंधी हूं।
उड़ान और अंकुश के बीच का
अंतर समझती हूं...,
सपनों की दुनिया
और सुकून की दुनिया
के बीच का अंतर
समझती हूं .....,
बेजान कागजों पर
इंद्रधनुषी चटक रंगों से गढ़ी गई
मैं पतंग.......!
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डॉ. ज्योत्सना सिंह "साहित्य ज्योति",
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