कवयित्री शशिलता पाण्डेय जी द्वारा रचना “धन की माया"

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धन की माया
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धन की माया बड़ी प्रबल,
निर्बल को भी देता बल।
इसकी महिमा अपरंपार,
शानो-शौकत बंगला कार।
इसके बिना नही सम्मान,
सुख-सुविधा की ये शान।
धन समृद्धि की पहचान,
रोटी,कपड़ा और मकान।
आज के जीवन की पहचान,
बड़ी विकट है धन की माया।
कोई इसको समझ न पाया,
निर्धन पूरी नींद ना सोया।
धनवान चैन- नींद खोया,
धन का नशा बड़ा ही दुष्कर।
ईमान -धर्म सब लेता हर,
धन के खातिर अपराध भयंकर।
 काम,क्रोध, मद, लोभ बढ़ाये,
बढ़े धन से मन मे अहंकार ।
जन-जन में फैले भ्रष्टाचार ,
बदले मानव का व्यवहार।
ये लाता मजबूत रिश्तों में दरार,
निर्धन पर होते हरदम अत्याचार।
 धन से रिश्ते-नाते होते सब दूर,
धन की माया मन मे गुरुर।
माता-पिता का भी भुलाता प्यार,
धन की कसौटी पर तौले संसार।
वृद्ध माता-पिता या सहोदर,
सबका करवाता ये अनादर।
ये लालच में करता मन- बीमार,
स्वार्थ में सिमटे रिश्ते सारे।
अपने भी फ़िरते अब मारे-मारे,
धनहीन को लोग देखे कमतर।
करता है अपनो में अंतर,
बड़ा ही अद्भुत धन का मंतर।
धन कराता हत्या और लूट,
जाते धनबल से अपराधी छूट।
धन बिना नही कुछ आता,
धनवान धनबल से सबकुछ पाता।
धनहीन मन चिंता में अटके,
धनवान हो मानव पथ से भटके।
धन ने करवाये युद्ध भयंकर,
जाने कितने लोग मरे कट मरकर?
जीवन-यापन सुलभ बनाता,
ये धन अहंकार भी मन मे लाता।
धन ही सबके जीवन का आधार,
धन के लिए दुनियाँ है बीमार।
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स्वरचित और मौलिक
सर्वधिकार सुरक्षित
कवयित्री:-शशिलता पाण्डेय
बलिया:-उत्तर प्रदेश

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