जय माँ कुष्मांडा
अद्भुत खेल
देती किसी को दे जाता कोई
हे देवी मांँ! कैसी लीला करती हो ?
दु:खित भ्रमित हूँ,खत्म हुई मानवता
पल्लवित कर जड़ों को गहराती हो।
तेरे ताने-बाने में उलझती
कैसे तो तुम सुलझा देती हो?
धूरी पर ही टिको, आदेशित कर
और भी बढ़ा कर लौटा देती हो।
दिग्भ्रमित होती रहती,
कुहासे से घिर जाती,
ज्ञान उजाला फैला कर
राहें दिखा जाती हो।
खेलो मत इस तरह मुझसे मेरी मांँ
कभी डांँटती, कभी मुस्कुराती हो
आनंदित होने लगी संग तेरे
कभी रूठती, कभी मानती हो।
अद्भुत खेल हुआ दूर-पास का
समर्पित तुझे तुच्छ बेटी तुम्हारी,
पकडूंँगी अब जो छोडूंँ नहीं
देखूंँगी तुम कहांँ जाती हो ?
*मीनू मीनल*
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