*19 अक्टूबर 2020*
*'बदलाव अन्तर्राष्ट्रीय मंच' साप्ताहिक प्रतियोगिता 'नारी -शक्ति' और नवरात्रि पर विशेष*
विपिन विश्वकर्मा 'वल्लभ'
कानपुर देहात उत्तर प्रदेश
यह प्रमाणित करता हूँ कि उक्त रचना मेरी मौलिक है ।
*सियास्वरूपा नारी*
इक अनकही पहेली है,
हाँ , वो अभी तक अकेली है ।
मर्यादाओं के बंधन में जकड़ी हुयी ,
अन्तस् की सिसकियों से सराबोर,
अपने मूक अधरों से बहुत कुछ कहती ,
सिमटती जाती कदम दर कदम,
अपने ही आगोश में,
किसी छुईमुई की तरह ।
बिखेरती है तो बस
ढेर सारा प्यार,
अपनों में और गैरों में भी , 'सामूहिक'
जिन्हें वह पहचानती भी नहीं ,
और नेह प्राण डालकर
अमर कर जाती है
उन यादों को जो अब
कभी जहन से नहीं जातीं ।
बिछा देती है खुद को
सभी के कदमों तले
अपने प्रियतम के घर
गोदी में झूलने वाली,
पीठ पर बैठने वाली,
सर आंखों पर रहने वाली ,
बाबुल की लाडली ।
नहीं मिलता वो प्यार, वो दुलार,
वो नेह , वो स्नेह
जिसकी कल्पना में
उसने वर्षों बिता दिये ,
मिला है तो बस
अपनी जीवित अस्थियाँ
ढोने का दुर्भाग्य ।
विडम्बना भी...
अपने पीहर के मान के खातिर ,
खुशी - खुशी सहती है
हर असहनीय पीड़ा
अपने लबों को सींवकर
अनवरत ............. ।
विपिन विश्वकर्मा 'वल्लभ'
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