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एक तरफ कानो में,
सुनाई देता!
बेटी दिवस की,
बधाई का शोर !
अन्तरात्मा फिर दहल,
उठी वेदना से!
सुनकर हदयविदारक चीत्कार,
फिर किसी नराधम ,
नरपशु ने किया !
अस्मत किसी मासूम का,
फिर से तार-तार!
क्या हो रहा,
वीरांगनाओं के इस देश मे?
मानवता होती रहती,
शर्मसार बार-बार !
जहाँ दुर्गा पैदा हुई थी,
लक्ष्मीबाई के वेश में!
क्यों बेटी! इतनी,
विवश और लाचार?
देश के प्रशासन का,
रहा नही विश्वाश !
जाने कितने रक्तबीज,
पैदा होंगे बार-बार?
घिनौना पाश्विकता का,
बीभत्स देखकर रूप!
स्तब्ध पूरा देश नराधम,
दुशासन का अनाचार!
हे माँ दुर्गा! लेकर,
चंडिका का रौंद- रूप!
कब महिषासुरो का,
करोगी संहार।
स्त्रीत्व की वेदना को,
कब तक सहेगी बेटियां!
होती रहेगी कबतक इन ,
भेड़ियों का शिकार !
घात में छुपा नराधम नरपशु,
मरी आत्मा को भी,
मारे बार-बार!
जबान काटकर,
बनाया बेजुबान!
तड़पती आत्मा की चीत्कार!
वेदना कितनी मचाती होगी,
दिल मे हाहाकार!
जब तड़पेंगे नर-पिशाच,
आत्मा तृप्त होगी मुक्त होकर !
फांसी पर लटकेंगे फिर से,
जब वे भस्मासुर!
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स्वरचित और मौलिक
सर्वधिकार सुरक्षित
कवयित्री:-शशिलता पाण्डेय
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